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________________ सम्पादकीय [ २१ लेखन की परम्परा कब प्रारम्भ हुई इसका प्रामाणिक विवरण नहीं मिलता। पर ऐतिहासिक श्रुति के अनुसार प्राग् ऐतिहासिक काल में ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिकला का ज्ञान कराया, जिसके आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मीलिपि पड़ा । ७२ कलाओं में भी लेखनकला को एक स्थान प्राप्त है । आगमों को लिपिबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य देवर्धिगणि ने प्रारम्भ किया। संभव है प्रारम्भ में साधु-साध्वी समुदाय ही लिपिक का कार्य करते थे किन्तु कालान्तर में वैतनिक लिपिकों का उपयोग अधिक किया जाने लगा यतिवर्ग ने भी आगमों की प्रतिलिपि करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सेठ लोग प्रतिलिपि करवाकर साधुओं को दान में देते थे तथा इसे पुण्य का कार्य मानते थे। पद्मपुराण के उत्तरखंड में वर्णन आता है कि पुस्तक को दान में देने से देवत्व की प्राप्ति होती है। वैदिक परम्परा में भी प्रति लेखन को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। गरुड़ पुराण का निम्न श्लोक इसी बात की पुष्टि करता है - प्राचीन काल में ग्रंथ के प्रचार- प्रसार का यही साधन था । आज कल्पसूत्र की हजारों प्रतियां भंडारों में मिलती हैं । उनमें अनेक स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं । हस्तप्रतियों से प्राचीन ग्रंथों का पाठ संपादन श्रमसाध्य एवं कष्ट साध्य कार्य है। बिना धैर्य एवं स्थिरता के यह कार्य होना कठिन है। पाठ-निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान करना अत्यन्त अपेक्षित रहता है। उसके लिए अनुसंधाता को एक-एक शब्द पर चिन्तन केन्द्रित करना पड़ता है । पाठ संपादन की प्रक्रिया इतिहासपुराणाणि लिखित्वा यः प्रयच्छति । ब्रह्मदानसमं पुण्यं प्राप्नोति द्विगुणीकृतम् ॥ ३ आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसंधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं - १. सामग्री संकलन, २. पाठचयन, ३. पाठसुधार, ४. उच्चतर आलोचना । प्रस्तुत भाष्य के संपादन में हमने चारों बातों का ध्यान रखने का प्रयत्न किया है । पाठ संशोधन के लिए तीन आधार हमारे सामने रहे हैं - १. व्यवहार भाष्य की हस्तलिखित प्रतियां २. मलयगिरि की प्रकाशित टीका ३. व्यवहार भाष्य की सैकड़ों गाथाएं जो बृहत्कल्प, निशीथ एवं जीतकल्प आदि के भाष्यों में मिलती हैं। बृहत्काय ग्रंथ होने के कारण व्यवहार भाष्य की ताड़पत्रीय प्रतियां कम लिखी गयीं । अतः पन्द्रहवीं - सोलहवीं शती में कागज पर लिखी प्रतियों का ही हमने उपयोग किया है। पाठ संशोधन में चार प्रतियां मुख्य रही हैं पाठ चयन में हमने प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है । अर्थ-मीमांसा, टीका की व्याख्या, पौर्वापर्य के आधार पर जो पाठ संगत लगा उसे मूल पाठ के अन्तर्गत रखा 1 है। पाठ-संपादन एवं निर्धारण में मलयगिरि की टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । अनेक पाठ हस्तप्रतियों में स्पष्ट नहीं थे कि टीका की व्याख्या से उनकी स्पष्टता हो गई। जैसे २६६वीं गाथा में सभी प्रतियों में 'च इमो' पाठ है लेकिन टीका में 'व्रजामः' के आधार पर यह स्पष्ट हुआ कि 'वइमो' पाठ होना चाहिए । हस्तप्रतियों में 'च' और 'व' का अंतर करना अत्यन्त कठिन है । इसी प्रकार गाथा १६६८ में प्रतियों में 'गीयत्यो होइण्णा' एवं 'गीयत्येहाइण्णा' दोनों पाठ मिले पर टीका के 'गीतार्थैराचीर्णा' के आधार पर 'गीयत्येहाइण्णा' ( गीयत्थेहि आइण्णा) पाठ स्पष्ट हो गया। कहीं-कहीं सभी प्रतियों में एक ही पाठ मिलने पर भी यदि पूर्वापर के आधार पर टीका का पाठ उचित लगा तो उसे हमने मूलपाठ में रखा है तथा प्रतियों के पाठ को पाठान्तर में दिया है गा. ३६६० में प्रतियों में 'अण्णवरा' पाठ मिलता है किंतु यहां १. बलाहपुरम्म नपरे देवहिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थट्ठ आगमु लिहिओ, नवसय असीयाओ वीराओ ॥ २. पद्मपुराण, उत्तरखंड अ. ११७ । ३. गरुड़पुराण अ. २१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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