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व्यवहार भाष्य
छंद के आधार पर भी हमने पाठ-निर्धारण करने का प्रयत्न किया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ी गयी हैं। मुद्रित टीका एवं हस्तप्रतियों में अनेक स्थलों पर पूर्वार्द्ध के शब्द उत्तरार्ध में तथा उत्तरार्ध के पूर्वार्द्ध के साथ संलग्न हैं। बिना छंद की दृष्टि से ऐसी अशुद्धियों को पकड़ना कठिन होता है। पश्चिमी विद्वान डॉ. ल्यूमेन ने दशवैकालिक तथा एल्फ्सडोर्फ ने उत्तराध्ययन का छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं विमर्श किया है।
छंद की दृष्टि से कहीं-कहीं हमने द्वित्व पाठ भी स्वीकृत किया है जैसे 'अगीत' के स्थान पर 'अग्गीत', 'सचित्त' के स्थान पर 'सच्चित्त', 'अफासु' के स्थान पर 'अप्फासु' आदि।
जहां कहीं हमें छंद की दृष्टि से पाठ संगत नहीं लगा वहां हमने उसका वैकल्पिक पाठ क्या होना चाहिए उसका निर्देश पादटिप्पण में कर दिया है। लेकिन जहां भिन्न पाठ स्वीकृत किया है, उसका उल्लेख भी प्रामाणिकता की दृष्टि से नीचे पादटिप्पण में कर दिया है-जैसे १५६वीं गाथा में प्रतियों में पढमो इंदो-इंदो त्ति' पाठ मिलता है पर हमने 'पढमो त्ति इंद इंदो' पाठ स्वीकृत किया है। इसी प्रकार प्रतियों में इस गाथा का चौथा चरण 'रस्सिणो त्ति चरमो घड पडो त्ति' पाठ मिलता है पर हमने 'रस्सी चरमो घड पडोत्ति' पाठ स्वीकृत किया है।
छंद की दृष्टि से मात्रा को ह्रस्व करने के लिए चिह्न का प्रयोग किया है। कम्प्यूटर में प्रकाशित होने के कारण चिह्न मात्रा के साथ मिलकर ऊर्ध्व 'र' की भ्रान्ति उत्पन्न करता है, जैसे-करें पगते बितिओं आदि।
अनेक स्थलों पर सप्तमी के लिए प्रयुक्त एकार विभक्ति के स्थान पर इकार विभक्ति का पाठ स्वीकृत किया है। जैसे गाथा २० में 'अवंके' और 'अवंकि' दोनों पाठ मिलते हैं, पर हमने 'अवंकि' पाठ स्वीकृत किया है।
हमने एक प्रयत्न प्रारम्भ किया था कि सम्पूर्ण ग्रंथ में कौन-सी गाथा में कौनसा छंद प्रयुक्त हुआ है, इसका एक चार्ट प्रस्तुत किया जाए लेकिन समयाभाव के कारण यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका।
पाठ-संपादन
भारतीय परम्परा में मौखिक ज्ञान की परम्परा या गुरुमुख से प्राप्त ज्ञान का अधिक महत्त्व रहा है। यही कारण है कि यहां हजारों वर्षों तक कंठस्थ ज्ञान की परम्परा चलती रही। ज्ञान की इस विधि में किसी बाह्य उपकरण की अपेक्षा नहीं रहती थी। गुरुमुख से साक्षात् ज्ञान होने के कारण विद्यार्थी की उच्चारण-शुद्धि एवं बोलने में शब्दों के उतार-चढ़ाव का ज्ञान भी सहज हो जाता था। मौखिक परम्परा का महत्त्व संस्कृत के निम्न सुभाषित से समझा जा सकता है
पुस्तकप्रत्ययाधीतं, नाधीतं गुरुसन्निधौ। भ्राजते न सभामध्ये, जारगर्भ इव स्त्रियः॥
वीर निर्वाण के बाद लगभग १००० वर्ष तक आगम मौखिक परम्परा से सुरक्षित रहे। भाष्य एवं नियुक्ति-साहित्य भी सैकड़ों वर्षों तक मौखिक परम्परा से संक्रान्त होते रहे। अतः लेखक द्वारा स्वतः लिखी हुई या उसके द्वारा संशोधित या प्रमाणीकृत भाष्य आदि की कोई प्रति आज नहीं मिलती।।
वैदिकों ने मौखिक परम्परा से ही वेदों की सुरक्षा अत्यन्त जागरूकता से की। ब्राह्मण वर्ग ने स्वर के आरोह-अवरोह आदि अनेक उच्चारणों से वेदपाठ की सुरक्षा की। आज भी वेदों का अस्खलित पाठ करने वाले अनेक वेदपाठी ब्राह्मण मिलते हैं। किंतु जैन आगमों का बहुत बड़ा भाग काल के अंतराल में विस्मृत एवं लुप्त हो गया। आचारांग का प्रमाण नंदी में १८ हजार श्लोक प्रमाण मिलता है लेकिन आज उसका अधिकांश भाग लुप्त हो गया है। वेदों में पाठान्तर न आने का एक कारण संभवतः यह रहा कि वेदों को अपौरुषेय मानकर उन्हें अलौकिक ग्रंथ की कोटि में रखा गया। अतः किसी भी विद्वान ने उसमें भाषा या विषय सम्बन्धी परिवर्तन की हिम्मत नहीं की लेकिन जैन आगमों के विषय में यह बात नहीं रही। वाचनाकाल में जैन आगमों का परिवर्धन एवं परिवर्तन भी हुआ है। स्थानांग में अनेक ऐसे स्थल हैं, जो बाद में प्रक्षिप्त हैं।
जैन आगमों के पाठ सुरक्षित न रहने का एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि आचार्यों ने आगम-वाचना को केवल साधु-समुदाय तक सीमित रखा, गृहस्थों को वाचना देने का अधिकारी नहीं समझा गया।
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