________________
सम्पादकीय
[१६
अनेक लौकिक एवं सैद्धान्तिक न्यायों का प्रयोग भी भाष्य में यत्र-तत्र देखने को मिलता हैलोगम्मि सयमवज्रं, होइ अदंडं सहस्स मा एवं (१६३६)। न हि अग्गिनाणतोऽग्गीणाणं (२०६)।
कुछ न्यायों का भाष्यकार ने संकेत मात्र किया है लेकिन टीकाकार ने उनकी विस्तृत व्याख्या दी है. जैसे-'वणिग्न्याय,
अलंकार
यद्यपि प्राकृत के आचार-प्रधान ग्रंथों में अलंकारों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है, परंतु इस भाष्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग भी यत्र-तत्र मिलता है। रूपक अलंकार के उदाहरण
वयणघरवासिणी वि हु, न मुंडिया ते कहं जीहा? (२५८५)। पव्वयहिययं पि संपकप्पंति (२४६४) ।
तव-नियम-नाणरुक्खं (४४४७) । उपमा अलंकार के उदाहरण
कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं (२०००)।
सेविज्जतं विहंगेहिं, सरं व कमलोज्जलं, (२००१)। छंद विमर्श
भाष्य पद्यबद्ध रचना है। यह अनेक छंदों में निबद्ध है। भाष्यकार ने मुख्यतः मात्रा छंद के अन्तर्गत आर्याछंद का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है। आर्या छंद की अनेक 'उपजातियां हैं। प्रस्तुत भाष्य में भी आर्या की कुछ उपजातियों का प्रयोग मिलता है।
छंद में मात्रा का बहुत महत्त्व होता है। इस दृष्टि से कभी-कभी ग्रंथकार को उत्क्रम भी करना होता है। भाष्यकार स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते हैं-बंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स (७१६)। छंद की दृष्टि से भाष्यकार ने कहीं-कहीं शब्दों का संक्षेपीकरण भी किया है। जैसे
जीवा-जीविता साग-श्रावक जीए-जीवित
आत-आयात आदि। प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक स्थलों पर एक ही गाथा में अनुष्टुप एवं आर्या-दोनों छंदों का प्रयोग हुआ है। जैसे-तीन चरण आर्या के तथा एक अनुष्टुप् का अथवा तीन चरण अनुष्टुप् के तथा एक आर्या का। जहां भी छंदों का मिश्रण हुआ है, हमने पादटिप्पण में उसका उल्लेख कर दिया है।
कहीं-कहीं शब्द का विस्तार एवं मात्रा का दीर्धीकरण भी किया हैनिमित्ताग-निमित्त आयरीओ-आयरिओ एवमागम-एवागम
छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर भाष्यकार ने निर्विभक्तिक प्रयोग भी किए हैं। तथा जे, इ, मो, च आदि पादपूर्ति रूप अव्ययों का प्रयोग भी किया है। १. व्यमा १२०० टी. प. ५१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org