SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८] व्यवहार भाष्य सभी कथाओं का टीका के आधार पर अनुवाद प्रस्तुत किया है। हमने कथाओं का विषयानुगत वर्गीकरण न कर भाष्यगाथाओं के क्रम से ही उनको प्रस्तुत किया है। टीका में कुछ कथाएं संस्कृत में तथा कुछ प्राकृत में हैं। प्राकृत की कथाएं टीकाकार ने निशीथ चूर्णि, दशवैकालिक चूर्णि, आवश्यक चूर्णि आदि चूर्णि-ग्रन्थों से ली हैं, ऐसा प्रतीत होता है। निशीथ चूर्णि के चौथे भाग में आई अनेक कथाएं व्यभा के प्रथम उद्देशक में वर्णित कथाओं से शब्दशः मिलती हैं। कथा नं. ६६ से ७२ तक की कथाएं पंचतंत्र से प्रभावित हैं। कथा परिशिष्ट में कुछ अत्यन्त संक्षिप्त कथाएं भी हैं। कहीं-कहीं भाष्यकार ने कथा का संकेत दिया है लेकिन टीकाकार ने उस कथा की कोई व्याख्या नहीं की है। उनका अनुवाद हमने प्रस्तुत नहीं किया है। जैसे ५६१ वीं गाथा में अनुशिष्टि के अन्तर्गत सुभद्रा एवं उपालम्भ में मृगावती की कथा, १०७६ वीं गाथा में भय से क्षिप्तचित्त बने सोमिल ब्राह्मण की कथा तथा ४४२० वीं गाथा में चाणक्य और सुबंधु की कथा आदि। लेकिन ऐसे प्रसंग बहुत कम हैं जहां टीकाकार ने कथा का विस्तार या स्पष्टीकरण न किया हो। भाष्यकार ने धर्म, इतिहास, एवं समाज से सम्बन्धित कथाओं का उल्लेख किया है किंतु इनमें राजनीति से सम्बंधित कथाएं अधिक हैं। इन कथाओं के माध्यम से उस समय की राज्य व्यवस्था, युद्ध, राजा की दूरदर्शिता आदि का ज्ञान किया जा सकता है। भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर प्रसंगवश व्याकरण सम्बन्धी विमर्श भी प्रस्तुत किया है। एक ही अव्यय अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है इसका संकेत करते हुए भाष्यकार लिखते हैं अपरीमाणे पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे। एवं सद्दो उ एतेसुं, एगत्ते तु इहं भवे ॥ (१६५४) ‘एवं'-यह अव्यय चार अर्थों में प्रयुक्त होता है-अपरीमाण, पृथक्भाव, एकत्व और अवधारण। इसी प्रकार 'सिया' (स्यात्) अव्यय आशंका एवं अवधृत अर्थ में प्रसिद्ध है-आसंकमवहितम्मि सिया 'नो' अव्यय देशतः प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त होता है-नोकारो खलु देसं पडिसेहती (१३६०) । व्याकरण एवं भाषाशास्त्र की दृष्टि से निर्देशवाची शब्दों के प्रयोग भी द्रष्टव्य हैं-जेत्ति व से त्ति व के त्ति व निदेसा होति एवमादीया (१८७)। प्राकृत भाषा में प्रायः अलाक्षणिक 'मकार' का प्रयोग मिलता है। परन्तु प्रस्तुत भाष्य में अलाक्षणिक 'हकार' का भी प्रयोग हुआ है। जैसे 'सीसाहा। भाष्यकार ने उच्चारण की अशुद्धि से होने वाले अनर्थ की ओर भी संकेत किया है। (गा. २०६५-६७) __ भाष्यकार ने समास और व्यास दोनों शैलियों को अपनाया है। अनेक स्थलों पर .एक ही विषय या शब्द की विस्तृत व्याख्या की है; जैसे-'साधर्मिक' शब्द की व्याख्या तथा आचार्य को गोचरी नहीं करनी चाहिए आदि अनेक विषयों का वर्णन विस्तार से हुआ है। संक्षिप्त शैली के भी अनेक उदाहरण इस ग्रंथ में देखने को मिलेंगे। जैसे-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार एवं अनाचार की व्याख्या एक ही गाथा में बहुत कुशलता से कर दी है। कहीं-कहीं तो इतनी संक्षिप्त शैली में वर्णन है कि बिना टीका के भाष्य को समझा ही नहीं जा सकता। जैसे- ७१वीं गाथा में 'काइ' शब्द में कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों चेष्टाओं का समाहार है। तथा उसी गाथा में 'थद्ध'-शारीरिक जड़ता, 'फरुसत्त'-वाचिक कठोरता एवं 'नियडी'-मानसिक कपट का प्रतीक है। 'जाव' का प्रयोग प्रायः गद्य आगमों में मिलता है, लेकिन भाष्यकार ने इस ग्रंथ में इसका प्रयोग किया है। 'पियधम्मो जाव सुयं, (गाथा २६) में 'जाव' शब्द १४वीं गाथा का संक्षेपीकरण है। यहां 'जाव' शब्द से पियधम्म से लेकर बहुस्सुय तक के सभी विशेषण गृहीत हो जाते हैं। १४वीं गाथा नियुक्तिकार की है। इन विशेषणों का संकेत भाष्यकार ने २६वीं गाथा में किया है। भाष्यकार ने अनेक विषयों को चतुर्भंगी के माध्यम से समझाया है। अनेक महत्त्वपूर्ण चतुर्भगिया इस भाष्य में मिलती हैं। १. व्यभा १३२४ टी. प. ७७, हकारोऽलाक्षणिकः । २. व्यभा ४३ : आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति। पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ ३. व्यभा ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy