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________________ सम्पादकीय [१७ भाष्यकार ने एक ही शब्द के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे-सूर्य के लिए दिणकर, आइच्च, सूर तथा गधे के लिए खर, गद्दभ, रासह आदि शब्दों का प्रयोग किया है। लेकिन कहीं-कहीं विशेष प्रयोजन से एक ही शब्द या चरण की पुनरुक्ति भी भाष्यकार ने की है सई जंपति रायाणो, सई जंपंति धम्मिया। सई जंपंति देवावि, तं पि ताव सई वदे ॥ (३३२६) इसी प्रकार १६८२ से १६८५ तक की चार गाथाओं का उत्तरार्ध एक जैसा है-जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमायति। स्थान-स्थान पर अनेक एकार्थकों का प्रयोग भाष्य में मिलता है। अनेक ऐसे एकार्थक हैं, जिन्हें अन्य कोशों में नहीं देखा जा सकता। जैसे लोट्टण लुटण पलोट्टण, ओहाणं चेव एगट्ठा। (६०७) बहुजणमाइण्णं पुण, जीयं उचियं ति एगळं। (६) भाष्यकार ने प्रसंगवश अनेक निरुक्तों का भी उल्लेख किया है जो भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे-व्यवहार शब्द का निरुक्त-विविहं वा विहिणा वा,ववणं हरणं च ववहारो (गा.३)। आप्त शब्द का निरुक्त-णाणमादीणि अत्ताणि तेण अत्ता उ सो भवे (४०६३) अनेक स्थलों पर शब्द का संक्षिप्त अर्थ भी गाथाओं में दिया है जैसेरहिते णाम असंते (४५१०) वत्तो णामं एक्कसि (४५२२) अणुवत्तो जो पुणो बितियवारं (४५२२) तइयवारं पवत्तो (४५२२) पया उ चुल्ली समक्खाता (३७१६) संस्कृत ग्रन्थों में ऐसे प्रयोग कम देखने को मिलते हैं। व्याकरण एवं भाषा की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण प्रयोग हैं। प्रस्तुत भाष्य में कहीं-कहीं भाषा सम्बन्धी नए प्रयोग भी मिलते हैं। जैसे निरुत्तर करने के अर्थ में 'अमुहं' शब्द का प्रयोग भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। (२५६६) सैद्धान्तिक या तात्त्विक वर्णम करते समय भाष्यकार ने अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषा भी स्पष्ट कर दी है। परिशिष्ट नं. ६ में हमने उन परिभाषाओं का संकलन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के भाषागत वैशिष्ट्य का एक कारण है-अनेक सूक्त एवं सुभाषितों का प्रयोग। सूक्तियों के प्रयोग से ग्रन्थ की भाषा सरस, मार्मिक, वेधक एवं प्रभावोत्पादक बन गई है। कहीं-कहीं तो जीवनगत मूल्यों के गंभीरतम तथ्य बहुत सरल एवं सहज भाषा में प्रकट हुए हैं न उ सच्छंदया सेया। (८६) तणाण लहुतरो होहं इति वज्जेति पावगं। (२७५५) अनेक उपमाओं के प्रयोग से ग्रन्थ की भाषा में विचित्रता एवं सरसता उत्पन्न हो गई है। भाष्यकार ने अनेक नवीन उपमाओं का प्रयोग किया है। जैसे-निहाणसम ओमराइणिए (गा. २३३७)। मन की चंचलता को व्यक्त करने वाली उपमाएं भाष्यकार के मस्तिष्क की नयी उपज है (गा. २७५७६४)। किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का प्रयोग तो बहत अधिक में किया गया है। ये दृष्टान्त लौकिक दृष्टि से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। भाष्यकार ने गहन विषयों को सरसता से समझाने के लिए अनेक कथाओं का संकेत दिया है। कुछ कथाओं को छोड़कर लगभग सभी कथाएं इतनी संक्षिप्त हैं कि बिना टीका के उन्हें समझ पाना कठिन है। परिशिष्ट नं. ८ में हमने भाष्य में आई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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