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परिशिष्ट-५
एकार्थक जिन शब्दों का एक ही अभिधेय हो , वे एकार्थक कहलाते हैं। इनके लिए 'अभिवचन' २ 'निरुक्ति' और 'निर्वचन' शब्दों का उल्लेख भी मिलता है। किसी भी विषय की व्याख्या में एकार्थक शब्दों के प्रयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।' बृहत्कल्पभाष्य में एकार्थकों की प्रयोजनीयता इस प्रकार बतलाई गई है
बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो।
सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए।। छंद की व्यवस्थापना, सूत्र का लाघव, असम्मोह तथा शास्त्रीय गुणों का दीपन-ये एकार्थक के गुण हैं। इसके अतिरिक्त एकार्थवाची शब्दों के प्रयोग से विद्यार्थी का भाषा एवं कोशविषयक ज्ञान सुदृढ़ होता है। विभिन्न भाषाभाषी शिष्यों के अनुग्रह के लिए भी ग्रंथकार एकार्थकों का प्रयोग करते हैं, जिससे प्रत्येक देश का विद्यार्थी उस शब्द का अर्थ ग्रहण कर सके। किसी भी बात का प्रकर्ष एवं महत्त्व स्थापित करने के लिए भी एकार्थक शब्दों का प्रयोग होता था। भाव-प्रकर्ष हेतु प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग पुनरुक्तिदोष नहीं माना जाता था।
अंतिग–समीप। अंतिगमज्झासमासन्नं समीवं चेव आहितं । अचिवत्त-अप्रिय । अचियत्तं ति वा अपियत्तं ति वा एगहुँ । अणुसटि-स्तुति । अणुसहि थुतित्ति एगट्ठा । आचारप्रकल्प-निशीथ । आचारप्रकल्पो नाम निशीथापरपर्यायम् । आभोगण-आसेवन। आभोगणं ति वा मग्गणं ति वा झोसणं ति वा एगहूँ। आरोह–विशालता। आरोहो दीर्घत्वं परिणाहो विष्कंभो विशालता (एकार्थम्)। इच्छा-इच्छा। इच्छाछन्दः इत्येकार्थः। उउमास-ऋतुमास । उउमासो कम्ममासो सावणमासो। उक्कसण-उत्कर्ष। उक्कसण माणणं ति य एगटुं ठावणा चेव । उद्दिष्ट-ईप्सित। उद्दिष्टा ईप्सिता इत्यनर्थान्तरम् । उद्धारणा–धारणाव्यवहार । उद्धारणा विधारण संधारण संपधारणा। उपश्रा-द्वेष । उपश्रा द्वेष इत्यनान्तरम्। उववात-आज्ञा । उववातो निद्देसो आणा विणओ य होति एगट्ठा ।
(गा. ४५६५ टी. प.१००) (गा. १२३८ टी.प.५६)
(गा.५६३) (गा. ४६५२ टी. प.१०७)
(गा. १०६० टी. प.२४) (गा. ४०६२ टी.प.३८) (गा. ८६० टी. प.११२) (गा. १६८ टी.प.७)
(गा. १६६२) (गा. ३६१ टी.प.६४)
(गा. ४५०३) (गा. १५ टी.प.१०)
(गा. २०८१)
१. स्थाटी प ४७२। २ भ. २०/२५ ३. आवहाटी पृ. २४२॥ ४. अनुद्वामटी प. ६ : निक्खेवेगट्ठ-निरुत्त विही पवत्ती व केण वा कस्स । तद्दार-भेय-लक्खण, तदरिहपरिसा य सुत्तत्था।। ५. बृभा १७३। ६. जंबूटी प ३३ : नानादेशविनेयानुग्रहार्थं एकार्थिकाः । ७. . भटी प १४ : समानार्था : प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रंथकृतोक्ता ।
• भटी प ११६ : एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्टम् । ८. धारणायाश्चत्वार्यकार्थिकानि गा. ४५०३ टी प ८८ ।
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