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________________ ९८ ] व्यवहार भाष्य ९८६. ९८३/४. णाणादीसुं तीसु वि, सट्ठाणे णत्थि खइय अतिचारो । उवसामिए वि दोसुं, दिट्ठी चरणे य सट्ठाणे ॥ ९८४. सट्ठाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा । दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ ॥ ९८५. दव्वदुए दुपदेणं, सच्चित्तेणं च एत्थ अहिगारो । मीसेणोदइएणं, भावम्मि वि होति 'दोहिं पि"५ ॥दारं ।। नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे । दंसण-नाण-चरित्ते, अभिग्गहे भावणाएं य दारं ॥नि.१६८ ।। ९८७. नामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कट्ठकम्ममादीसु । दव्वम्मि 'जो उ' भविओ, साधम्मि सरीरगं जं च ॥ ९८८. खेत्ते समाणदेसी, कालम्मि तु एक्ककालसंभूतो । पवयणसंधेकतरो, लिंगे रयहरण-मुहपोत्ती ॥ दंसण-नाणे-चरणे, तिग पण-पण 'तिविध होति व चरित्तं० । दव्वादी तु अभिग्गह, अह भावण मो अणिच्चादी ॥ ९९०. 'साहम्मिएहि कहितहि"१, लिंगादी होति एत्थ चउभंगो१२ । नाम ठवणा दविए, भाव विहारे य चत्तारि ॥नि. १६९ ॥ लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे । पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होति ससिहागा२३ ॥ ९९२. साधू तु लिंग पवयण, णोभयतों कुतित्थ-तित्थयरमादी । उववज्जिऊण एवं, भावेतव्वो तु सव्वे वी४ ॥ ९९३. एमेव य लिंगेणं, दंसणमादीसु होंति भंगा उ । भइएसु उवरिमेसुं, हेट्ठिल्लपदं तु छड्डेज्जा ॥ ९८९. 2. उजो (अ.स)। ९. ० पत्ती (स)। १०. तिविहो होइ चरिते (म)। ११. गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)। १२. चतुर्भगी गाथायां पुंस्त्वमार्षत्वात् (मवृ) । १३. अ और स प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती ९८३/१-४ ये चारों गाथाएं केवल अ और स प्रति में मिलती हैं। ये गाथाएं ९८२-९८३ इन दोनों गाथाओं के स्थान पर हैं। ये व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। ये गाथाएं बाद में बनाई गई या पहले, यह खोज का विषय है। प्रति के पाठांतर के रूप में मुद्रित टीका के संपादक ने टीका में इन गाथाओं का उल्लेख किया है। पर मूल टीकाकार ने इन गाथाओं का कोई उल्लेख नहीं किया है। ० परठाणे (अ)। खंतिए (ब)। ०दएण य (स)। दुविध तु (अ), दोहि तु (स)। भावयाओ (स)। उ(ब). २. ३. पवयणतो लिंगेण य, चउभंगो एत्थ होति णायव्यो । जो जत्थ निवडति तहिं भंगम्मि सो उ कायव्यो । हमने टीका की व्याख्या के आधार पर ९९१ वी गाथा को मूल में स्वीकृत किया है। यह गाथा केवल अऔर स प्रति में प्राप्त है । टीकाकर ने इसकी व्याख्या नहीं की है। किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह यहां संगत प्रतीत होती है। ६. ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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