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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [७६ भय से क्षिप्त होने में भाष्यकार ने सोमिल ब्राह्मण का उदाहरण दिया है। गजसुकुमाल कृष्ण के लघुभ्राता थे। उन्होंने प्रव्रज्या के प्रथम दिन ही एकरात्रिकी श्मशान प्रतिमा स्वीकार की। सोमिल ब्राह्मण वहाँ गया, उसने अपने जामाता को मुनि वेष में देखा। उसका मन प्रतिशोध से भर गया। वह गजसुकुमाल की मृत्यु का कारण बना। गजसुकुमाल की मृत्यु के बाद कृष्ण के भय से सोमिल ब्राह्मण क्षिप्तचित्त हो गया।' अपमान अपमान या असम्मान क्षिप्तचित्तता का बहुत बड़ा कारण है। जैसे सारी सम्पत्ति छीन लेने पर नगरसेठ का विक्षिप्त होना। अथवा वाद-विवाद में पराजित होने पर व्यक्ति या मुनि का विक्षिप्त हो जाना। क्षिप्तचित्तता के निवारण के उपाय अनुराग से उत्पन्न क्षिप्तचित्तता को मरण की अनिवार्यता और संसार की अस्थिरता का बोध कराने से दूर किया जा सकता है। हिंस्र पशुओं को देखकर भयाक्रान्त होने पर आचार्य हस्तिपाल, सिंहपाल आदि को बुलाकर हाथी मंगाकर दूसरे छोटे मुनि को दिखाते हैं। वे डरते नहीं तब उनके उदाहरण से क्षिप्तचित्त मुनि के भय को दूर करते हैं। व और अग्नि को देखकर क्षिप्तचित्त हआ हो तो विद्या से शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर क्षिप्त मनि के देखते-देखते उस शस्त्र और अग्नि को पैरों तले रौंद कर दिखाते हैं। अथवा हाथों को पानी से भिगोकर अग्नि का स्पर्श करके कहते हैं-कहाँ है अग्नि का भय? यदि गर्जारव के भय से क्षिप्त हुआ हो तो स्थविर मुनि आकाश में शुष्क चर्म का विकर्षण-आकर्षण करते हैं और उससे गर्जारव के सदृश शब्द उत्पन्न कर उसे स्वस्थ करते हैं। वाद में पराजित होने पर जो क्षिप्तचित्त हो जाता है, उसके समक्ष उस विजयी को लाकर कहते हैं-अरे! वास्तव में जीत तुम्हारी हुई थी। लोगों ने उसे समझा नहीं। देख, यह स्वयं अपनी पराजय स्वीकार करता है। शिष्य इस प्रतिकार को सही मानकर स्वयं स्वस्थ हो जाता है। ये उदाहरण क्षिप्तचित्त को स्वस्थ करने के मनोवैज्ञानिक कारणों पर आधारित हैं। आज का मनोविज्ञान भी इन कारणों का प्रयोग करता है। इसके अतिरिक्त वायु के क्षुभित होने पर तथा दैविक उपद्रव से भी व्यक्ति क्षिप्त हो जाता है। वायु रोग से उत्पन्न विक्षिप्तता स्निग्ध-मधुर भोजन एवं करीष की शय्या का प्रयोग करने से दूर की जा सकती है। तथा दैविक उपद्रव दूर करने के लिए देवता के कायोत्सर्ग का विधान है। दृप्तचित्त क्षिप्तचित्त व्यक्ति मौन रूप से अपने पागलपन को प्रकट करता है लेकिन दृप्तचित्त व्यक्ति असंबद्ध प्रलाप करता रहता है। यही दोनों में भेद है। क्षिप्तचित्तता का कारण अपमान या असम्मान है। लेकिन दृप्तचित्तता का कारण अत्यधिक सम्मान या लाभ प्राप्त करना है। जैसे ईंधन से अग्नि उद्दीप्त होती है वैसे ही अत्यधिक हर्ष आदि की स्थिति में व्यक्ति उद्दीप्त हो १. व्यभा.१०७६ २. व्यभा. १०७६ । ३. व्यभा. १०८७-१११६ टी. प. २८३४। ४. व्यभा. १०६८ टी. प. ३१, ३२। ५. व्यभा. ११२३: जो होइ दित्तचित्तो सो पलवतिऽणिच्छियव्वाई। ६. व्यभा. ११२४ टी. प. ३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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