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व्यवहार भाष्य
२१६०-२२०६. दो संख्याक भिक्ष, गणावच्छेदक आदि विषयक
वर्णन। २२०७-१५. आभवद् व्यवहार के भेद तथा विवरण। २२१६-२६. अवग्रह के तीन भेदों का विवरण । २२३०-४२. निर्गमन की चतुर्भगी और उसका विवरण। २२४३-५४. असंस्तरण में साधुओं की चतुर्भगी आदि का
वर्णन। २२५५. काल के आधार पर अवग्रह के तीन भेद । २२५६,२२५७. वृद्धावास का निर्वचन तथा कालमान। २२५८-६३. वृद्धावास में रहने के हेतुओं का निर्देश। २२६४-६८ जंघाबल की क्षीणता का अवबोध । २२६६-७२. स्थविर का क्षेत्र और काल से अपराक्रम जानने
का निर्देश। २२७३-७५. गच्छवास को सहयोग देने की विधि। २२७६,२२७७. वृद्धों के प्रति चतुर्विध यतना। २२७९-८२. वृद्धावास के प्रति कालगत यतना। २२८३-८८. वृद्धावास की वसति एवं संस्तारक यतना का
निर्देश। २२८६,२२६०. ग्लानत्व, असहायता तथा दौर्बल्य के कारण
होने वाला वृद्धावास। २२६१. अनशन-प्रतिपन्न की निश्रा में प्रतिचारक के
रहने का कालमान। २२६२-६७. सूत्रार्थ के निष्पादक की वृद्धावास में रहने की
काल-मर्यादा। २२६८
एक क्षेत्र में रहने के कारणों का निर्देश । २२६६.
संलेखना-प्रतिपन्न के साथ तरुण साधु के रहने
की काल-मर्यादा। २३००-२३०३. अवग्रह के तीन प्रकार एवं उनके कल्प-अकल्प
की काल मर्यादा। २३०४. साध्वियों की विहार संबंधी मर्यादा। २३०५,२३०६. ऋतुबद्ध काल में सात तथा वर्षाकाल में नौ
साध्वियों के विहार का निर्देश एवं उसके
कारण। २३०७११. प्रवर्तिनी के कालगत होने पर आचार्य के समीप
जाने की परम्परा। २३१२.
साध्वियों की प्रमादबहुलता एवं अस्थिरता की
कथा। २३१३,२३१४. नव, डहरिका तथा तरुणी की व्याख्या और
प्रवर्तिनी बनने की अर्हता। २३१५-१८ अन्यगच्छ से समागत साध्वी की विज्ञप्ति। २३१८-२१. प्रकल्प अध्ययन की विस्मृति करने वाले को
यावज्जीवन गण न सौंपने का निर्देश तथा
प्रकल्प की विस्मृति के कारणों की खोज। २३२२-२६. विद्यानाश में अजापालक, योध आदि के अनेक
दृष्टान्त। २३२७,२३२८. प्रमत्त साध्वी को गण देने, न देने का विमर्श। २३२६. प्रमत्त मुनि को गण देने, न देने का विमर्श। २३३०,२३३१. मथुरा नगरी में क्षपक का वृत्तान्त। २३३२,२३३३. प्रकल्पाध्ययन नष्ट होने पर स्थविर और
आचार्य की कर्त्तव्यता। २३३४. सूत्रार्थधारक ही गणधारी। २३३५. कृतयोगी के सूत्र-नाश का कारण। २३३६. गण को स्वयं धारण करने का विवेक २३३७. कृतिकर्म का विधान और निधान का दृष्टान्त । २३३८,२३३६. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त। २३४०-४२. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त। २३४३-४५. कृतिकर्म की विधि। २३४६,२३४७. स्थविरों के द्वारा कतिकर्म करने से तरुणों को
प्रेरणा। २३४८ आलोचना किसके पास? २३४६-५५. संभोज (पारस्परिक व्यवहार) के छह प्रकार
तथा विवरण। २३५६-६०. सांभोजिक एवं असांभोजिक का विभाग कब? २३६१-६४. आलोचना-विधि तथा दोष। २३६५. आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी अतः साध्वियों
को छेदसूत्र की वाचन की परम्परा। २३६६. आगमव्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा
प्रायश्चित्तदान-विधि। २३६७-७२. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का
साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान। २३७३-७८ साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने
की विधि तथा दृष्टिराग की चिकित्सा। २३७६-८५. सांभोजिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक
सेवा कब? कैसे? २३८६-६१. ग्लान श्रमण की वैयावृत्त्य करने वाली आर्यिका
की योग्यता के बिन्दु।
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