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________________ १३८] व्यवहार भाष्य ३८८८ व्यवहार के दो अर्थ। ३८८६. व्यवहर्त्तव्य के दो प्रकार-आभवत् और प्रायश्चित्त। ३८६०. आभवत् और प्रायश्चित्त व्यवहार के पांच-पांच प्रकार। ३८६१-६६. क्षेत्र विषयक आभवतु और क्षेत्र प्रतिलेखना। ३८६७. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट क्षेत्र के गुण। ३८६८. जघन्य क्षेत्र का स्वरूप। ३८६६. क्षेत्र के चौदह गुण। ३६००,३६०१. वर्षायोग्य क्षेत्र का अनुज्ञापन। ३६०२-१५. क्षेत्र के अनुज्ञापन में पूर्वनिर्गत, पश्चानिर्गत आदि। ३६१६-२२. क्षेत्र यदि अपर्याप्त हो तो कौन वहां रहे और कौन न रहे? ३६२३. आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास की मर्यादा का उल्लेख ३६२४-२७. सारूपिक आदि को अनुज्ञापित कर वसति से बाहर रहने की विधि। ३६२८-३१. संविग्नबहुल काल में आषाढ़ शुक्ला दशमी को वर्षावास की मर्यादा। वर्तमान में इस मर्यादा के अतिक्रमण के कारणों का उल्लेख । ३६३२-४२. पार्श्वस्थों का स्वरूप। ३६४३-४६. वर्षावास के लिए क्षेत्र की घोषणा तथा बाधाएं। ३६५०. क्षेत्र का अन्वेषण और क्षेत्र का व्यवहार। ३६५१-५५. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहां रहने की विधि। ३६५६,३६५७. पूर्वसंस्तुत एवं पश्चात्संस्तुत की व्याख्या तथा क्षेत्र सम्बन्धी विचार।। ३६५८-६०. श्रुतसम्पत् के दो प्रकार तथा विवरण। ३६६१-६३. ज्ञान अभिधारण के विविध विकल्प। ३६६४,३६६५. माता पिता आदि निर्मिश्र वल्ली और उसके लाभ। ३६६६,३६६७. मिश्र वल्ली के अन्तर्गत कौन-कौन? ३६६८-७१. अभिधारक के दो प्रकार और उनका विवरण। ३६७२-७४. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और कालगत अवस्था पर संपादनीय विधि। ३६७५. ज्ञान, दर्शन आदि के अभिधार्यमाण का विवरण। ३६७६. चारित्र के लिए अभिधारण करने के लाभ। ३६७७,३६७८. अभिधार्यमाण किसकी निश्रा में? ३६७६. अर्थप्रदाता की बलवत्ता का कथन। ३६८०. श्रुतसम्पत् का विवरण। ३६८१-६२. सुख-दुःख उपसम्पदा का प्रतिपादन । ३६६३-६६. मार्गोपसम्पद् का विवरण। ४०००-४००७. विनयोपसम्पद का विवरण। ४००८,४००६. आभवत् व्यवहार का उपनय। ४०१०-१६. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार। ४०२०-२२. मागध आदि के दृष्टान्तों से मन से कराना तथा मन से अनुज्ञा। ४०२३,४०२४. काया से अनुज्ञा । ४०२५-२७, प्रमाद विषयक प्रायश्चित्त में नानात्व क्यों? ४०२८. पांच व्यवहारों के नाम। ४०२६-३६. आगम व्यवहार के भेद-प्रभेद। ४०३७. आगमतः परोक्ष व्यवहारी कौन? ४०३८ श्रुत से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी कैसे? ४०३६. जानने की अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी की समानता। ४०४०,४०४१. प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी में प्रायश्चित्त दान की समानता। ४०४२ ४५. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी प्रदत्त प्रायश्चित्त में शिष्य का प्रश्न और गुरु का उत्तर। ४०४६,४०४७. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी के ज्ञान विषयक धमक का दृष्टान्त। ४०४८,४०४६. श्रुतज्ञानी और प्रत्यक्षज्ञानी विशोधि के ज्ञाता। ४०५०-५३. विशोधि की विधि। ४०५४. आगमव्यवहारी के सामने आलोचना करने के गुण। ४०५५. द्रव्य, पर्याय आदि से आलोचना की परिशद्धि । ४०५६-६०. अज्ञान, भय आदि कारणों से प्रतिसेवना। ४०६१,४०६२. प्रतिसेवना के कारणों का आगम-विमर्श । ४०६३. आप्त की परिभाषा।। ४०६४-६६. आगमव्यवहारी प्रायश्चित्त कब और कैसे देते ४०७७-७६. ४०८०-८२. आलोचनाह कौन? आचार्य की आठ संपदाएं तथा उनके भेद-प्रभेद। आचार संपदा के चार प्रकार। ४०८३-८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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