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________________ ११८] व्यवहार भाष्य ४६०. एवं चोर का दृष्टान्त। ४५३-५६ प्रायश्चित्त-दान के विविध कोण तथा मरुक का दृष्टान्त। छह मास से अधिक प्रायश्चित्त न देने का विधान। ४६१-६६ छेद और मूल कब, कैसे? ४७०,४७१. पिंडविशोधि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि उत्तरगणों की संख्या का परिज्ञान। ४७२. प्रायश्चित्त वहन करने वालों के प्रकार। ४७३,४७४. निर्गत और वर्तमान तथा संचित और असंचित प्रायश्चित्तवाहकों का परिज्ञान। ४७५. संचय, असंचय तथा उद्घात, अनुद्घात की प्रस्थापन-विधि। ४७६.,४७७. असंचय के तेरह तथा संचय के ग्यारह प्रस्थापना-पद। संचयित प्रायश्चित्त के पद। ४७६,४८०. प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष। ४८१,४८२. उभयतर प्रायश्चित्त में सेवक का दृष्टान्त। ४८३. उभयतर पुरुष द्वारा वैयावृत्त्य न करने पर प्रायश्चित्त का विधान। ४८४. उभयतर तथा परतर के प्रायश्चित्त दान में अन्तर। भिन्न मास आदि प्रायश्चित्त देने की विधि।। ४८६,४८७. उद्घात और अनुद्घात प्रायश्चित्त वहन करने वाले के लघु-गुरु मासिक का निर्देश। उद्घात और अनुद्घात के आपत्ति स्थान । ४८६-६१. उद्घात और अनुद्घात की प्रायश्चित्त विधि। ४६२. अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। ४६३. निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। दुर्बल और बलिष्ठ को यथानुरूप प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त-दान का विवेक। ४६७५००. आत्मतर तथा परतर को प्रायश्चित्त देने की ४७८, विवेक। ५०६-१२. राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि से प्रायश्चित्त में वृद्धि और हानि विषयक प्रश्नोत्तर। ५१३,५१४. हीन या अधिक प्रस्थापना क्यों? आचार्य का समाधान। ५१५,५१६. राग और द्वेष की हानि और वृद्धि का परिज्ञान कैसे? ५१७. निकाचना का विवरण तथा आलोचना संबंधी दन्तपुर का कथानक। ५१८ आलोचना, आलोचनार्ह तथा आलोचक-तीनों की समवस्थिति। ५१६५२०. आलोचनाह की योग्यता तथा गुण। ५२१,५२२. आलोचक की योग्यता तथा गुण। ५२३. आलोचना के दस दोष।। ५२४. प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करने का विधान। ५२५. सातिरेक, बहुसातिरेक आदि सूत्रों के अनेक विकल्प। ५२६,५२७. भिक्षाग्रहण के समय होने वाले पांच दोषों का वर्णन तथा प्रायश्चित्त। ५२८२४. परस्पर संयोग से होने वाले विकल्प। परिहार तप की योग्यता के परीक्षण बिन्दु-पृच्छा, पर्याय, सूत्रार्थ, अभिग्रह आदि। ५५६ परिहार तप करने वाले का वैयावृत्त्य। ५६०,५६१. वैयावृत्त्य के तीन प्रकार तथा सुभद्रा आदि के दृष्टान्त। ५६२,५६३. त्रिविध-अनुशिष्टि की भावना। ५६४. आत्मोपलम्भ का स्वरूप। ५६५. उपग्रह के दो प्रकार। ५६६. उपग्रह का प्रवर्तन समस्त गच्छ में। ५६७. समस्त गच्छ में अनुशिष्टि का प्रवर्तन। ५६८५६६. कौन आचार्य इहलोक में हितकारी और कौन परलोक में? ५७०. सारणा न करने वाला आचार्य समीचीन क्यों नहीं? ५७१. कृत्स्न प्रायश्चित्त का आरोपण। ५७२,५७३. कृत्स्न के छह प्रकार। ५७४. पहले किस कृत्स्न से आरोपण? ४८५. ४८८ ४६४. विधि। ५०१. . अन्यतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। ५०२. 'मूल' प्रायश्चित्त किसको? ५०३,५०४. प्रायश्चित्त विषयक प्रश्न तथा उत्तर। ५०५-५०८, जलकुट और वस्त्र के दृष्टान्त से शुद्धि का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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