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________________ १६०] परिशिष्ट-१२ पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति । प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं होता। (गा. ४२१५) अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति। चारित्र के अभाव में निर्वाण नहीं मिलता। (गा. ४२१६) निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है। (गा. ४२१६) इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। न चेयं ते पसंसामी, किसं साधसरीरगं।। आचार्य ने कहा-वत्स ! तुम अपनी इन्द्रियों को जीतो, कषायों को तनु करो और तीन प्रकार के गौरव से मुक्त बनो। शरीर को कृश करने मात्र से कुछ नहीं होगा। (गा. ४२६४) जह बालो जंपंतो, कज्जमकजं च उज्जुयं भणति । तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ।। बालक ऋजता से अपना कार्य-अकार्य बता देता है। बालक की भांति माया और अहं से शन्य होकर दोषों की आलोचना करना ी श्रेयस्कर है। (गा. ४२६६) भुत्तभोगी पुरा जो तु, गीतत्थो वि य भावितो। संतेमाहारधम्मेसु, सो वि खिप्पं तु खुब्भते।। भुत्तभोगी, चाहे फिर वह गीतार्थ और भावितात्मा ही क्यों न हो, आहार आदि भुक्त विषयों को देखकर क्षुब्य हो जाता है। (गा. ४३१८) वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति । जो विरक्त होता है, वह संवेगपरायण होता है। (गा. ४३३०) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण।। जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो स्वाध्याय करता है, वह विशेष निर्जरा करता है। (गा. ४३३८) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे. काउस्सग्गे विसेसेण।। जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो कायोत्सर्ग करता है, वह विशेष निर्जरा करता है। (गा. ४३३६) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण।। जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कमों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो सेवा करता है, वह विशेष निर्जरा करता है। (गा. ४३४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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