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________________ १६०] परिशिष्ट १२५. संलेखना की या नहीं ? एक बार एक शिष्य आचार्य के पास भक्त प्रत्याख्यान अनशन की आज्ञा लेने उपस्थित हुआ। आचार्य ने पूछा-अनशन से पूर्व तुमने संलेखना की या नहीं ? शिष्य ने सोचा-आचार्य मेरे शरीर को देख रहे हैं जो केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है फिर भी ये मुझे संलेखना की बात पूछ रहे हैं। यह सोचकर क्रोध के आवेश में उसने अपनी अंगुली तोड़कर दिखाते हुए कहा-क्या तुम्हें कहीं रक्त और मांस दिखता है ? सोचो, मैंने संलेखना की है या नहीं ? शिष्य को सुनकर आचार्य बोले-मैंने द्रव्य संलेखना के विषय में नहीं पूछा था। यह तो तुम्हारे शरीर को देखकर प्रत्यक्षतः जान लिया है। मैंने भाव-संलेखना के विषय में जानना चाहा था और यह स्पष्ट दीखता है कि तुमने भाव-संलेखना—कषायों का उपशमन नहीं किया है। जाओ, भाव संलेखना का अभ्यास करो और फिर अनशन की बात सोचना। (गा. ४२६०, ४२६१ टी. प. ६३) १२६. आज्ञाभंग : मृत्यु का वरण एक राजा ने अमात्य और कोंकण देशवासी नागरिक इन दोनों को अपराधी मानकर यह आज्ञा दी कि यदि दोनों पांच दिन के भीतर देश को छोड़कर नहीं जाएंगे तो उनका वध कर दिया जाएगा। दोनों ने आदेश सुना। कोंकण देशवासी नागरिक के पास तुम्बे और कांजी के पानी से भरे बर्तन थे। वह तत्काल तुम्बे और कांजी जल को छोड़कर उस देश से निकल गया। मंत्री घर पर आया। गाड़ी, बैल आदि की व्यवस्था कर घर को समेटने लगा। उस व्यवस्था में उसके पांच दिन निकल गए। छठे दिन राजा ने उसे शूली पर चढ़ा दिया । अमात्य मृत्यु को प्राप्त हो गया। (गा. ४२६२, ४२६३ टी. प. ६३) १२७. आचार्य स्कंदक का प्रतिशोध ___ कुम्भकार नगर में दंडकी नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम था पुरंदरयशा। पुरोहित का नाम था पालक। एक बार मुनि सुव्रत स्वामी के अंतेवासी शिष्य मुनि स्कंदक ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहां आए। राजा ने द्वेषवश उनके पांच सौ शिष्यों को कोल्हू में पील कर मार डाला। जब अंत में छोटे मुनि को पीलने लगे, तब आचार्य स्कंदक अत्यंत कुपित हो गए। उन्हें भी कोल्हू में पील डाला। वे मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए और अपने पूर्वभव का स्मरण कर दंडकी राजा के समस्त देश को भस्म कर डाला। आचार्य को छोड़ शेष सारे शिष्य समाधि-मरण से मरकर उच्च गति में गए। (गा ४४१७ टी. प. ७६) १२८. राजसेवा का अवसर किसको ? ___आचार्य कालक शकों को यहां लाए, उज्जयिनी नगरी में शक राजा हो गया। शकों ने सोचा, राजा हमारी जाति का ही है। यह सोचकर वे गर्व से उन्मत्त हो राजा की उचित सेवा नहीं करते। तब राजा ने उन्हें अपने पास से हटा दिया। अब वे शक चोरी करने लगे, नगरवासियों ने राजा से शिकायत की। राजा ने उन सबको देश-निष्कासन का दंड दिया। वे उस देश से निकल गए। देशान्तर में जाकर वे एक राजा की उपासना करने लगे। उनमें से एक व्यक्ति राजा के गमन-आगमन पर स्वयं आगे चलता, पार्श्ववर्ती होकर कभी दौड़ता। जब राजा खड़ा होता या बैठता तब वह भी सामने खड़ा रहता। राजा बैठने के लिए कहता तो वह नीचे भूमि पर बैठ जाता। कभी राजा के सामने भूमि पर बैठ जाता। राजा के इंगित को जानकर राजा की आज्ञा के बिना भी वह राजा के प्रयोजन को साध लेता। एक बार राजा पानी और कीचड़ के मध्य से गया। शेष सारे लोग सूखे तथा बिना कीचड़ वाले रास्ते से चले, किंतु वह सेवक घोड़े के आगे पानी और कर्दम के बीच ही चला। राजा उस पर तुष्ट हुआ और उसे बहुत धन देकर संतुष्ट किया। दूसरे व्यक्ति के मन में यह गर्व था कि वह भी शक है, राजवंशीय है। इस गर्व से उन्मत्त होकर वह राजा का कार्य नहीं करता। जाति और कल के अभिमान से वह स्वयं का बहुत सम्मान करता, भूमि पर नीचे नहीं बैठता था और न राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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