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________________ १४४] परिशिष्ट-र बोला —मृगराज ! वह सिंह इस कुएं में रहता है। यदि तुमको विश्वास न हो तो कुएं की मेंढ पर तुम गर्जन करो, वह भी गर्जन करेगा। सिंह ने गर्जना की। गर्जना की प्रतिध्वनि सुनाई दी। सिंह वहां क्षण भर रुका। पुनः गर्जना नहीं सुनाई दी, तब सिंह ने सोचा-यह सिंह मेरे भय से संत्रस्त हो गया है। न यह गर्जना करता है और न सामने आता है। तो अच्छा है कुएं में उतरकर उसे मार डालूं। वह कुएं में उतरा। सिंह को वहां न देखकर सोचा—वह बेचारा मेरे भय से छुप गया है। तब सिंह ने गर्जना की, जोर से दहाड़ा। कोई प्रत्युत्तर नहीं आया, तब सोचा-वह मेरे साथ लड़ना नहीं चाहता। यह सोचकर सिंह अपनी भरपूर शक्ति से छलांग मार कर कुएं से बाहर आने के प्रयास में कुएं में गिरकर मर गया। एक सियार घूमता हुआ उसी कुएं पर आया, उसने पानी में झांका। सियार का प्रतिबिम्ब देखकर उसने 'हुंकार' किया। प्रतिध्वनि हुई। उसको सुनकर सियार ने सोचा—मेरे सामने हुंकार करता है! वह तत्काल कुएं में कूद पड़ा। पुनः बाहर छलांग भरने में असमर्थ होने के कारण वह वहीं मर गया। (गा. १३८५, १३८६ टी.प. ८) ७३. मन के लड्डू । एक भिखारी था। एक बार वह गोकुल में गया। वहां ग्वालिन ने उसे दूध पिलाया। कुछ समय पश्चात् उसे वहां दूध से भरा घड़ा मिला। वह उसे लेकर घर गया, अपने पलंग के सिरहाने के पास उसे रखकर बैठ गया। अब वह सोचने लगा-इस दूध का दही जमाऊंगा। उसे बेचकर मुर्गियां खरीदूंगा। वे अंडे देंगी। उन्हें बेचूंगा। मूल धन को ब्याज में दूंगा। जब मेरे पास पर्याप्त धन हो जाएगा तब समानकुल या अन्यकुल की कुलीनकन्या के साथ विवाह करूंगा। वह अपने कुल के मद से मेरे सिरहाने से शय्या पर चढ़ेगी। तब 'तू मेरे सिरहाने से शय्या पर चढ़ती है'-यह कहता हुआ मैं उस पर एड़ी से प्रहार करूंगा। उसने पैर का प्रहार किया। वह प्रहार घड़े पर लगा और वह दूध का घड़ा फूट गया। उसका सपना बिखर गया। (गा. १३८८ टी.प.६) ७४. अनर्थ चिंतन एक ग्वाला गायों को चराता था। एक बार उसने सोचा, गायों को चराने के बदले जो धनराशि मिलेगी, मैं उससे नई ब्याई हुई गाय खरीदूंगा। धीरे-धीरे उसका परिवार बढ़ेगा। मेरे पास बड़ा गोवर्ग हो जाएगा। उस गोवर्ग में अनेक बछड़े होंगे। मैं उनके लिए मयरांगचलिका–आभरण विशेष बनवाऊंगा। यह सोचकर उसने अपने पास के धन से अनेक आभूषण बना डाले। सारा धन खर्च हो गया। अब उसके पास कछ नहीं रहा। यह असत कल्पना से घटित अनर्थ है। (गा १३६०, १३६१ टी.प.१०) ७५. सक्रियता, निष्क्रियता दो भाई थे। दोनों अलग-अलग हो गए। एक भाई कृषिकर्म करने लगा। वह स्वयं कृषि में तत्पर रहता और अन्यान्य कर्मकरों से भी काम लेता। वह कर्मकरों को उनके श्रम के अनुसार उचित धन देता, भोजन देता। इस प्रकार उसकी कृषि बढ़ी और सभी उसको साधुवाद देने लगे। दूसरा भाई आलसी था। वह कृषि कार्य में नहीं जुटता था। जो कर्मकर काम करते, वह उनके कार्य का लेखा-जोखा भी नहीं लेता था। न वह उन कर्मकरों के मध्य रहकर काम करता और न उनसे काम करवाता। कर्मकरों को वह समय पर न धनराशि देता, न समय पर भोजन देता। सारे कर्मकर उससे रुष्ट होकर उसकी नौकरी छोड़ चले गए। उसकी कृषि चौपट हो गई और लोग उसकी निन्दा करने लगे। __(गा. १४०६ टी.प.१४) ७६. वज्रभूति आचार्य भरुकच्छ नगर में नभवाहन राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था पद्मावती। उसी नगर में वज्रभूति आचार्य रहते थे। वे महान कवि थे। उनके कोई शिष्य नहीं था। वे साधारण रूपवाले तथा अत्यंत कृशकाय थे। उनका काव्यगान . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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