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________________ परिशिष्ट [१४५ अन्तःपुर में गूंजने लगा। रानी पद्मावती उस काव्यगान से अत्यंत प्रभावित हुई। काव्य ने उसके हृदय को छू लिया। उसने सोचा, जिसका यह काव्य है, मैं उसे कैसे देख सकती हूं ? उसने राजा से प्रार्थना की और वह दासियों से परिवृत होकर, मूल्यवान उपहार लेकर वज्रभूति आचार्य के उपाश्रय की ओर गई। वज्रभूति उस समय दरवाजे पर बैठे थे। रानी को देखकर आचार्य स्वयं का आसन लेकर बाहर आए। रानी ने पूछा-आचार्य वज्रभूति कहां हैं ? बाहर जाते हुए आचार्य ने कहा-वे बाहर गए हैं। दासी ने रानी से कहा -यही आचार्य वज्रभूति हैं। आचार्य को देखकर रानी को विरक्ति हो गई। उसने सोचा-ओह ! 'कसेरू' (एक नदी) तेरा नाम प्रसिद्ध है, परंतु तूं दर्शनीय नहीं है। [कसेरु नदी 'अति प्रसिद्ध है। परंतु उसका पानी पीने योग्य नहीं है।] रानी ने उपहार वहां रखे और कहा-ये उपहार आचार्य को दे देना। इतना कहकर रानी चली गई। (गा. १४१४, १४१५ टी.प. १४, १५) ७७. लोभ का परिणाम ___एक अंगारदाहक (कोयला बनानेवाला) था। वह अंगारों के योग्य लकड़ियां लाने के लिए नदीकूल पर गया। उस नदी के तट पर एक गट्ठर पानी के प्रवाह में बहता हुआ आया। उसने उसे निकाला। वह गोशीर्ष चंदन का गट्ठर था। वह उसे लेकर वहां बैठ गया। इतने में ही एक वणिक वहां आया। उसने गट्ठर को देखा और जान लिया कि यह चन्दन है। सामान्य लक्कड़ नहीं है। उस वणिक् ने उस अंगारदाहक से कहा-अरे तुम इस काष्ठ का क्या करोगे ? उसने कहा-मैं इसे जलाकर कोयला बनाऊंगा। वणिक् ने सोचा-यदि मैं अभी इससे इस गट्ठर को मांगूंगा तो यह बहुत मूल्य बतायेगा। अच्छा है जब यह इसको जलाने लगेगा तब मैं इसे कम मूल्य में खरीद लूंगा। यह सोचकर वणिक् घर चला गया। और जब वह लौटकर आया तब तक अंगारदाहक ने उस गट्ठर को जला डाला था। वणिक ने आकर पूछा-अरे ! वह गट्ठर कहां है ? उसने कहा—मैंने उसे जला डाला। वणिक् ने उसे बुरा-भला कहा। उसने भी वणिक् की मूर्खता पर खेद प्रकट किया। ___ अंगारदाहक और वणिक् दोनों ऐश्वर्य से चूक गये। (गा. १४४४-१४४६ टी. प.२०) ७८. पांचों एक साथ प्रव्रजित एक राजा था। वह अमात्य, पुरोहित, सेनापति और श्रेष्ठी के साथ राज्य का पालन कर रहा था। उन पांचों के एक-एक पुत्र था। राजा का पुत्र राजा बनेगा, अमात्य का पुत्र अमात्य, पुरोहित का पुत्र पुरोहित, सेनापति का पुत्र सेनापति और सेठ का पत्र सेठ बनेगा, ऐसी सम्भावना की जाती थी। ये पांचों साथ-साथ रहते और क्रीड़ा करते। एक बार राजपुत्र विरक्त हुआ और उसने अपने चारों मित्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। सभी स्वाध्याय में रत हुए और पांचों ग्रहण और आसेवन-शिक्षा में निपुण होकर बहुश्रुत बन गए। वे पांचों ऊंचे कुलों के थे। गण के आचार्य ने उनकी ओर ध्यान दिया और राजपुत्र को आचार्यपद, अमात्यपुत्र को उपाध्याय पद, पुरोहितपुत्र को स्थविर पद तथा श्रेष्ठिपुत्र को गणावच्छेदक पद पर नियुक्त कर दिया। राजा, अमात्य आदि के कोई दूसरे पुत्र नहीं थे। अतः वे आचार्य के पास आकर बोले-हम सभी अपने-अपने पुत्रों को घर ले जाना चाहते हैं, फिर हम सब इनके साथ प्रव्रजित हो जायेंगे। आचार्य ने अनुज्ञा दे को तब आचार्य ने शिक्षा देते हए कहा-तम सब अपने सम्यक्त्व को दढ रखना और निरंतर अप्रमत्त रहना। __राजकुमार आदि घर में चले गए। वहां भी वे प्रासुक आहार करते, प्रतिदिन सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करते, लोच करवाते और ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। ___पांचों के माता-पिता ने सोचा कि ये यदि पुनः प्रव्रजित हो जाएंगे तो हमारी कुल-परंपरा का व्यवच्छेद हो जाएगा। उन्होंने पुत्रों को पुत्रोत्पत्ति की प्रेरणा दी। अब वे लक्षणपाठकों को पूछते कि किस महिला के ऋतुकाल में गर्भ रह सकता है। तब लक्षणपाठकों ने बताया कि इस प्रकार की लक्षणयुक्त महिला के ऋतुकाल में निश्चित ही गर्भ रह सकता है। तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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