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________________ परिशिष्ट-१२ सूक्त-सुभाषित पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे । पहले सोचो, फिर बोलो। (गा. ७६) अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा। वाणी बुद्धि का अनुसरण वैसे ही करती है, जैसे जनता अंधे नेता का अनुगमन करती है। (गा. ७६) अमुगं कीरउ आमं ति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ। वयणपसादादीहि य, अभिणंदति तं वई गुरुगो।। गुरु के आदेश को सुनकर जो शिष्य 'तहत्' कहकर उसको स्वीकार करता है, प्रसन्नवदन से उसका अभिनन्दन करता है, वही विनीत होता है। (गा. ८७) न ऊ सच्छंदया सेया। स्वच्छन्दवृत्ति श्रेयस्कर नहीं होती। (गा. ८६) जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी । तस्सा वि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता । गुरु के आदेश के प्रति विधियुक्त विनय करना, विनीत शिष्य का कर्तव्य है। (गा. ६०) न वि णज्जति वाघातो, कं वेलं होज जीवस्स । मृत्यु कब आ जाए, कोई नहीं जानता। (गा. २२८) आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं । गुरु की शरण में जाकर शल्य को निकाल फेंको। (गा २२६) न हु सुज्झती ससल्लो। सशल्य व्यक्ति की शोधि नहीं होती। (गा. २३०) उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झति जीवो धुतकिलेसो । शल्यरहित व्यक्ति क्लेशशून्य होकर शुद्ध हो जाता है। (गा. २३०) न वि अत्थि न वि होही, सज्झायसमं तवोकम् । स्वाध्याय के समान न दूसरा तपःकर्म है और न होगा। (गा. २६४।१) अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गयं । अग्र पर आघात मूल का विनाश कर देता है। मूल पर आघात अग्र का विनाश कर देता है। (गा. ४६६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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