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व्यवहार भाष्य
भग.
भआ
व्यभा ४५७८ ४५८१-८५ ४५६० ४५६३-६५ ४५६४ ४५६७ ४६०४
ठाणं ४/४१६ ४/४२० ४/४२२ ४/४२४, ४२५ ४/४२३ ३/१८७ ३/१८६
टीकाकार मलयगिरि
व्यवहार भाष्य के टीकाकार आचार्य मलयगिरि हैं। उनके जीवनवृत्त के बारे में इतिहास में विशेष सामग्री नहीं मिलती। न ही उनकी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख मिलता है। ये हेमचन्द्र के समवर्ती थे। उनके साथ उन्होंने विशिष्ट साधना से विद्यादेवी की आराधना की थी। देवी से उन्होंने जैन आगमों की टीका करने का वरदान मांगा था। इनका समय विद्वानों ने बारहवीं शताब्दी के आसपास माना है।
आचार्य मलयगिरि की प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में अधिक हुई है। लेकिन उन्होंने एक शब्दानुशासन भी लिखा है। शब्दानुशासन के प्रारम्भ में वे 'आचार्यो मलयगिरिः शब्दानुशासनमारभते' का उल्लेख करते हैं।
आगम-ग्रंथों पर लिखी सहस्रों पद्य परिमाण टीकाएं ही उनकी सूक्ष्ममेधा का निदर्शन है। मलयगिरि की टीकाएं मूलस्पर्शी अधिक हैं। अपनी टीका में उन्होंने लगभग सभी शब्दों की सटीक एवं संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की है। टीका के बिना मूल ग्रंथों के हार्द को समझना अत्यन्त कठिन है।
व्यवहार पर लिखी गयी उनकी टीका व्यवहार सूत्र एवं भाष्य के अनेक रहस्यों को प्रकट करनेवाली है। व्याख्या के प्रसंग में अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएं उनकी टीका में मिलती हैं, जैसे• अत्र गुरुशब्देनोपाध्याय उच्यते (१६७ टी. प. ५५)। । • चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते (४१७४ टी. प. ४७)। • धर्मे विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः (२१७ टी. प. १३)।
कहीं-कहीं दो समान शब्दों का अर्थभेद भी उन्होंने बहुत निपुणता से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार कहीं-कहीं कोई अव्यय या धातु यदि नए अर्थ में प्रयुक्त हुई है तो उसका अर्थ-संकेत भी मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। जैसे
• पकुब्बी त्ति कुर्व इत्यागमप्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः। (५२० टी. प. १८)। • नापि पश्चाच्छब्दः पश्चादानुपूर्वीवाचकः किन्तु प्रसिद्धार्थप्रतिपादको ज्ञेयः (५७ टी. प. ३८)। व्याख्या के प्रसंग में कुछ विशिष्ट न्यायों एवं लोकोक्तियों का उल्लेख भी वृत्तिकार ने किया है• कोऽयमर्धजरतीयो न्यायः (५०२ टी. प. ११)। • यत् पूर्वोक्तं तद्यथोक्तं न्यायम् (१५२४ टी. प. ३६)। • काक्यपि हि किलैकवारं प्रसूते इति प्रसिद्धिः ( १४५८ टी. प. २३)।
पाठ-संपादन में टीका का अविरल योग रहा है। प्राकृत में णं अव्यय वाक्यालंकार के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। प्राचीन लिपि में कहीं भी शब्दों या अक्षरों का अलग-अलग सिरा नहीं होता था इसलिए णं अव्यय वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ है या षष्ठी विभक्ति के अर्थ में यह भेद स्पष्ट रूप से टीका के आधार पर ही ज्ञात होता है।
व्याख्या के साथ-साथ उन्होंने उस समय की परम्पराएं एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश भी अपनी टीका में किया है
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