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परिशिष्ट
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में चुंगीघर आ गया। चुंगी लेने वाले ने उस वणिक् से चुंगी चुकाने के लिए कहा। वणिक् ने पूछा--कितना देना होगा ? शुल्कग्राही बोला—माल का बीसवां भाग। वणिक् ने सोचा-शकटों से माल को उतारना, तोलना और पुनः शकटों में भरने का झंझट होगा। अतः वह एक शकट चुंगी में देकर आगे चल पड़ा। वह पूरे भांड का बीसवां हिस्सा था क्योंकि उसके पास बीस शकट थे।
(गा. ४५४, ४५५ टी. प. ६५) २४. वणिक् की मूर्खता
___ एक मूर्ख वणिक् था। वह बीस शकटों को एक ही प्रकार की वस्तुओं से भरकर व्यापारार्थ चला। रास्ते में चुंगीघर वाले ने कहा-चुंगी के रूप में तुम्हें माल का बीसवां भाग देना पड़ेगा। एक शकट देकर चले जाओ। न सभी शकटों का माल उतारना-चढ़ाना पड़ेगा और न कोई झंझट होगा। उस मूर्ख वणिक ने कहा-नहीं, प्रत्येक शकट में से बीसवां हिस्सा ले लो। चुंगिक ने सारे शकट खाली करवाये। एक-एक शकट से बीसवां हिस्सा लिया। अब उस मूर्ख वणिक् को शकटों को पुनः माल से भरने का झंझट उठाना पड़ा। वह अपने कृत्य पर पछताने लगा। (गा. ४५४, ४५५ टी. प. ६५) २५. दोहरा लाभ
___ एक सेवक था। वह राजा के पास रहता था। राजा उसे आजीविका के लिए कुछ भी नहीं देता था। एक बार सेवक ने राजा को संतुष्ट किया। राजा प्रसन्न होकर उस दिन से उस सेवक को प्रतिदिन एक स्वर्ण माषक देने लगा। उसे वस्त्र-युगल भी दिया। इस प्रकार सेवक को दो लाभ हुए-स्वर्णं माषक की प्राप्ति तथा वस्त्र-युगल । (गा. ४८१ टी. प.३) २६. दंतमय प्रासाद का निर्माण
दंतपुर नगर में दंतवक्त्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था सत्यवती। एक बार उसे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं संपूर्ण दंतमय प्रासाद में क्रीडा करूं। उसने अपना दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय प्रासाद बनाने की आज्ञा दी और उसे शीघ्र ही संपन्न करने के लिए कहा। अमात्य ने नगर में घोषणा कराई—जो कोई दूसरों से दांत खरीदेगा अथवा अपने घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, उसे शूली की सजा भुगतनी होगी।
उस नगर में धनमित्र नाम का सार्थवाह रहता था। उसके दो पत्नियां थीं। एक का नाम था-धनश्री और दूसरी का नाम था—पद्मश्री। एक बार दोनों में कलह उत्पन्न हुआ, पद्मश्री ने धनश्री से कहा—तू क्या घमंड करती है। क्या तूने महारानी सत्यवती की भांति अपने लिए दन्तमय प्रासाद बनवा लिया है ? यह बात धनश्री को चुभ गई। उसने हठ पकड़ लिया कि यदि मेरे लिए दंतमय प्रासाद नहीं होता है तो मेरा जीवन व्यर्थ है। अब उसने अपने पति धनमित्र से आलाप-संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र ने अपने मित्र दृढ़मित्र से सारी बात कही। दृढ़मित्र बोला- मैं शीघ्र ही उसकी इच्छा पूरी कर दूंगा। तब दृढ़मित्र वनचरों से मिलने वन में गया। साथ में कुछ उपहार भी लिये। वनचरों ने पूछा-आपके लिए हम क्या लाएं ? क्या भेंट करें ? दृढ़मित्र बोला—मुझे दांत ला दो। वनचरों ने दांतों को अनेक घास के पूलों में छिपाकर उनसे एक शकट भर दिया। दृढ़मित्र तथा वनचर उस शकट को लेकर चले। नगर द्वार में प्रवेश करते ही एक बैल ने शकट से घास का पूला खींच लिया। उसमें छुपाए दांत नीचे आ गिरे। 'यह चोर है'—ऐसा सोचकर राजपुरुषों ने वनचर को पकड़ लिया और पूछा-ये दांत किसके अधिकार में हैं ? वनचर ने कुछ भी नहीं बताया। वह मौन रहा। इतने में ही दृढ़मित्र वहां आकर बोला---ये दांत मेरे अधिकार में हैं। यह मेरा कर्मकर है। राजपुरुषों ने वनचर को छोड़ दिया और दृढ़मित्र को पकड़कर राजा के पास ले गए। राजा ने पूछा- 'ये दांत किसके हैं? दृढ़मित्र बोला-मेरे। इतने में ही, मेरे मित्र दृढ़मित्र को राजपुरुषों ने पकड़ लिया है यह सुनकर, धनमित्र वहां आ पहुंचा। उसने राजा से कहा-ये दांत मेरे अधिकार में है। आप मुझे दंड दें, मेरे शरीर का निग्रह करें। दृढ़मित्र बोला—मैं इस व्यक्ति को नहीं जानता। ये दांत मेरे हैं, मेरा निग्रह करें। इसे मुक्त कर दें। इस प्रकार वे दोनों अपने आपको दोषी
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