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________________ विषयानुक्रम [११५ १७२. २१८ १७६. अधिगत। १६१. प्रकारान्तर से पुरुषभेद मार्गणा। १६२. कृतकरण का स्वरूप। १६३,१६४. निरपेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप। १६५-६७. सापेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप । १६८ अकृतकरण की अधिगत विषयक प्ररूपणा। १६६१७. प्रायश्चित्तदान के भेद से आचार्य आदि के तीन भेदों का उल्लेख।। १७१. गीतार्थ और अगीतार्थ के दोषसेवन में अंतर। दोष के अनुरूप प्रायश्चित्तदान का उल्लेख । १७३. गीतार्थ के दर्प प्रतिसेवना की प्रायश्चित्त विधि। १७४. अज्ञानवश अशठभाव से किए दोष का प्रायश्चित्त नहीं। १७५. जानते हुए दोष का सेवन करने वाला दोषी। तुल्य अपराध में भी प्रायश्चित्त की विनमता क्यों? कैसे? १७७. गीतार्थ के विषय में विशोधि का नानात्व। १७९-८०. आचार्य आदि की चिकित्साविधि का भंडी और पोत के दृष्टान्त से नानात्व का समर्थन। १८१. चिकित्सा का सकारण निर्देश। अकारण चिकित्सा का निषेध। १८३. सालंबसेवी की चिकित्सा का समर्थन। १८४-८६. कल्प और व्यवहार भाष्य में प्रायश्चित्त तथा आलोचना विधि का भेद। १८७. निर्देशवाचक जे. के आदि शब्दों का संकेत। भिक्षु शब्द के निक्षेप। १८६ 'भिक्षणशीलो भिक्षुः' निरुक्त की यथार्थता। १६० भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति की मीमांसा। १६१. सभी भिक्षाजीवी भिक्षु नहीं-इसका विवेचन। १६२. सचित्त आदि लेने वाला भिक्षु कैसे? १६३. भिक्षु कौन? १६४. 'क्षुधं भिनत्ति इति भिक्षुः' इस निर्वचन की यथार्थता। १६५. भिक्षु शब्द के एकार्थकों का निर्वचन। १६६,१६७. मास शब्द के निक्षेप। कालमास के प्रकार। १६६. नक्षत्रमास आदि के दिन-परिमाण। २००. दिनराशि की स्थापना। २०१-२०४. अभिवर्द्धित मास का दिन-परिमाण निकालने का उपाय-अभिवद्धितकरण। २०५-२०८. ऋक्ष आदि नक्षत्र मासों के विषय में विशेष जानकारी। २०६ भावमास का प्रतिपादन। २१०-१२. परिहार शब्द के निक्षेप एवं उनकी व्याख्या। २१३. स्थान शब्द के निक्षेप और उनकी व्याख्या। २१४. द्रव्य स्थान और क्षेत्र स्थान। २१५. ऊर्धादि स्थान। २१६. प्रग्रहस्थान। २१७. आचार्य आदि पांच प्रकार का प्रग्रह। योध-स्थान के पांच प्रकार। २१६२२०. संधना-स्थान। २२१. प्रतिसेवना के प्रकार। २२२-२४. दर्प और कल्प-प्रतिसेवना। २२५. कर्मोदय हेतुक तथा कर्मक्षयकरणी प्रतिसेवना। २२६. प्रतिसेवना और कर्म का हेतुहेतुमभाव। २२७. प्रतिसेवना का क्षेत्र, काल और भाव से विमर्श । २२८-३०. आलोचना और शल्योद्धरण के लाभ। २३१,२३२. आलोचना के तीन प्रकार। २३३. आलोचना महान् फलदायी। २३४,२३५. विहार-आलोचना के भेद-प्रभेद। आलोचना का काल-नियम। विविध-आलोचना का स्वरूप। २३८ ओघ-आलोचना के प्रकार। २३६ विहार-विभाग आलोचना-विधि। २४०-४३. आलोचना की विधि। २४४. विहार-आलोचना का स्वरूप। विहार आलोचना से उपसंपदा आलोचना तथा अपराध आलोचना का नानात्व। २४६. उपसंपदा आलोचना देने का प्रशस्त और अप्रशस्त काल। २४७. उपसंपद्यमान के प्रकार तथा आलोचना विधि। २४८ दिनों के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि। मुनि को गण से बहिष्कृत करने के १० कारण। २५०-५५. अयोग्य मुनि को गण से बहिष्कृत न करने पर प्रायश्चित्त। १८२. २३६. २३७ १८८, २४५. २४६ १६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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