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________________ ११६ ] व्यवहार भाष्य २६७. २६८ २६६ ३००,३०१. ३०२. ३०३. ३०४. ३०५. ३०६. ३०७. २७४. २५६. कलह आदि करने पर प्रायश्चित्त। २५७-६०. एकाकी, अपरिणत आदि दोषों से युक्त के लिए प्रायश्चित्त का विधान। २६१,२६२. शिष्य, आचार्य तथा प्रतीच्छक के प्रायश्चित्त की विधि। २६३,२६४. निर्गमन-आगमन के शुद्ध-अशुद्ध की चतुर्भंगी। २६५. आचार्य और शिष्य में पारस्परिक परीक्षा। २६६. परीक्षा के 'आवश्यक' आदि नौ प्रकार। २६७. आचार्य द्वारा शिष्य की परीक्षा। २६८ पंजरभग्न अविनीत की प्रवृत्तियां। २६६ परीक्षा-संलग्न शिष्य का गुरु को आत्मनिवेदन। २७०,२७१. परीक्षा के प्रतिलेखन आदि बिन्दुओं की व्याख्या। २७२. उपसंपद्यमान शिष्य का दो स्थानों से आगमन। २७३. पंजर शब्द विविध संदर्भ में। संगृहीतव्य और असंगृहीतव्य का निर्देश। २७५-७७. वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणा-विधि। २७८, स्वच्छंदमति के निवारणार्थ वाग्यतना। २७६. अलस आदि के प्रति वाग्यतना। २८०-८२. वाग्यतना के विषय में शिष्य का प्रश्न और सूरि का उत्तर। २८३. प्रत्यनीक के लिए अपवाद। २८४. ज्ञान आदि के लिए उपसंपद्यमान का नानात्व। २८५,२८६. ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लिए उपसंपद्यमान का नानात्व। २८७ विभिन्न स्थितियों में शिष्य और आचार्य दोनों को प्रायश्चित्त। २८८ उपसंपन्न की सारणा-वारणा। ज्ञानार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि। २६०. दर्शनार्थ तथा चारित्रार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि। गच्छवासी की प्राघूर्णक द्वारा वैयावृत्त्य विधि । वैयावृत्त्यकर की स्थापना संबंधी आचार्य के दोष। २६३. उपसंपद्यमान क्षपक की चर्चा । तप से स्वाध्याय की वरिष्ठता। २६५,२६६. गण में एक क्षपक के रहते दूसरे के ग्रहण का ३०८,३०६. ३१०-१२. ३१३. ३१४. विवेक। क्षपक की सेवा न करने से आचार्य को प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त-दान में आचार्य का विवेक। विशेष प्रयोजनवश छह माह पर्यन्त दोषी को प्रायश्चित्त न देने पर भी आचार्य निर्दोष। अन्य कार्यों में व्यापृत आचार्य की यतना। आलोचना कैसे दी जाए? अपराध-आलोचना का विमर्श। अपराधालोचना करने वाले की मनःस्थिति जानकर उसे समझाना। अपराधालोचना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। अप्रशस्त द्रव्य के निकट आलोचना वर्जनीय। अमनोज्ञ धान्यराशि आदि के क्षेत्र में आलोचना वर्जनीय। अप्रशस्त काल में आलोचना वर्जनीय। वर्जनीय नक्षत्र एवं उनमें होने वाले दोष। प्रशस्त क्षेत्र में आलोचना देने का विधान। प्रशस्त काल में आलोचना का विधान। आलोचनाह की सामाचारी। आलोचनीय का विमर्श। आलोचना के लाभ। आलोचनाह के दो प्रकार-आगमव्यवहारी, श्रुतव्यवहारी। आगम व्यवहारी के छः प्रकार। आलोचना में आगमव्यवहारी की श्रेष्ठता। श्रुतव्यवहारी कौन? उनकी आलोचना कराने की विधि। आलोचक की माया का परिज्ञान करने में अश्व का दृष्टान्त। आलोचक द्वारा तीन बार अपराध कथन का उद्देश्य । माया करने का प्रायश्चित्त भिन्न तथा अपराध का प्रायश्चित्त भिन्न। श्रुतज्ञानी द्वारा आलोचक की माया का ज्ञान करने के साधन। प्रतिकंचक के लिए प्रायश्चित्त तथा तीन दृष्टान्त। प्रायश्चित्त-दान में विषमता संबंधी शिष्य का ३१५. ३१६. ३१७. ३१८ ३१६ ३२०. ३२१. २८६ ३२२. २६१. २६२. ३२३. ३२४. २६४. । ३२५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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