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________________ परिशिष्ट-८ [१५५ है। सब जलकर भस्म हो गया है।' उस दिन से वे कृषक दुःख से जीवन बिताने लगे। (गा. २६१०-२६१३ टी. प. ३०) १०७. पशुसिंह : नरसिंह भगवान् वर्द्धमान के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के जन्म में एक सिंह का वध कर डाला। सिंह को अधृति हुई। उसने सोचा, यह मेरा पराभव है, क्योंकि मैं एक छोटे व्यक्ति से मारा गया हूं। गौतम का जीव त्रिपृष्ठ का सारथी था। उसने कहा----अधृति मत करो। तुम पशुसिंह हो। तुमको नरसिंह ने मारा है, फिर पराभव कैसे ? सिंह मर गया। वह संसार में नाना योनियों में परिभ्रमण करता हुआ चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय में राजगृह नगर के कपिल ब्राह्मण के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। एक बार भगवान् महावीर राजगृह नगर में समवसृत हुए। वह बटुक भी समवसरण में आया। भगवान् को देखकर वह 'धम-धम' करने लगा। तब भगवान् ने उसको उपशांत करने के लिए गौतम स्वामी को भेजा। गौतम स्वामी गए और उसको उपदेश देते हुए बोले-ये महान आत्मा तीर्थंकर हैं। जो इनके प्रतिकूल होता है, वह दुर्गति में जाता है। यह सुनकर वह शांत हो गया। गौतम स्वामी ने कालान्तर में उसे प्रव्रजित किया। (गा. २६३८ टी. प. ३५) १०८. राजाज्ञा का मूल्य कब ? एक राजा था। तीन व्यक्तियों ने उसकी आराधना की। राजा ने संतुष्ट होकर अमुक नगर के आयुक्त को आदेश देते हुए लिखा-प्रत्येक को एक-एक सुंदर मकान और एक-एक लाख दीनार दे दें। राजा का यह संदेश सुनकर तीनों प्रसन्न हुए। एक व्यक्ति इस संदेश को एक पट्ट पर लिखाकर ले गया। दूसरा केवल मुद्रांकित पट्ट लेकर गया। तीसरे ने पट्ट पर आज्ञा लिखाई और उस पर राजमुद्रा का अंकन कराया। पहला व्यक्ति जो केवल पट्ट पर आज्ञा लिखाकर ले गया था तथा दूसरा व्यक्ति जो केवल राजमुद्रांकित पट्ट ले गया था, दोनों आयुक्त के पास गए। एक ने आज्ञा लिखे पट्ट और दूसरे ने राज-मुद्रांकित पट्ट दिखाया। आयुक्त ने पहले व्यक्ति से कहा-आज्ञा लिखित है, पर राजमुद्रा नहीं है तो फिर मैं तुम्हें कैसे दूं? दूसरे से कहा-राजमुद्रांकित पट्ट तो है पर मैं नहीं जानता कि राजा की आज्ञा क्या है ? दोनों निष्फल हुए। तीसरे का पट्ट आज्ञांकित और मुद्रांकित भी था। वह सफल हुआ। उसे सुन्दर घर और एक लाख दीनार मिल गए। (गा. २६४१, २६४२ टी. प. ३६) १०६. पट्टरानी पृथिवी की उक्ति महाराजा शातवाहन की अग्रमहिषी का नाम था—पृथिवी। एक बार राजा को कार्यवश अन्यत्र जाना पड़ा। पट्टरानी पृथिवी तब अन्तःपुर की अन्य रानियों से परिवृत होकर, महाराजा शातवाहन का वेश पहनकर आस्थानिका मंडप में जा बैठी। वह महाराज की तरह प्रवृत्ति करने लगी। राजा अचानक उसी स्थान पर आ गया। महारानी ने राजा को आते हुए देख लिया, परंतु वह अपने आसन से नहीं उठी। उसके बैठे रहने पर अन्यान्य रानियां भी बैठी ही रहीं, उठीं नहीं। राजा रुष्ट होकर बोला—पृथिवी ! तुम महारानी हो, इसलिए नहीं उठी परन्तु तुमने दूसरी रानियों को भी बैठे रहने के लिए कहा, यह उचित नहीं है। राजा के इस प्रकार कहने पर पृथिवी महारानी बोली-'महाराज! आपकी आस्थानिका में बैठे हुए दास-दासी भी नाथ होते हैं। वे स्वामी को देखकर भी नहीं उठते। यह आपके आस्थानिका का ही प्रभाव है। आप भी जब यहां बैठते हैं तब गुरु को छोड़कर किसी व्यक्ति के आने पर नहीं उठते । मैं भी इस समय आपकी आस्थानिका में राजा बनकर बैठी थी। इसलिए सपरिवार नहीं उठी। यदि मैं राजा नहीं बनती तो अवश्य उठती।' पटरानी की बात सुनकर राजा संतुष्ट हो गया। (गा. २६४५-२६५७ टी. प.३६, ३७) ११०. दृष्टि-विक्षेप से हानि (क) एक किसान था। उसने शालि के दो खेत काटने के लिए दैनिक वेतन पर कर्मकरों को रखा। वे सब खेत में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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