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परिशिष्ट
वहीं बैठे-बैठे उसने राजा से कहा---गंगा पूर्व की ओर बहती है। यह तो दूसरे लोग भी जानते हैं।
तब आचाय ने राजा से कहा—मेरे शिष्यों में से जिसे तुम विषम चरित्रवाला मानते हो, विनयभ्रंशी मानते हो, उसे भेजो। राजा ने आचार्य के कथनानुसार अविनीत दीखने वाले श्रमण से कहा—जाओ, यह ज्ञात कर बताओ की गंगा किस दिशा में बहती है ? निर्देशानुसार वह श्रमण आचार्य की आज्ञा ले वहां गया और लौटकर आ गया। पहले उसने ईर्यापथिकी कायोत्सर्ग किया, गुरु के समक्ष आलोचना की। गुरु ने पूछा-अभी आलोचना कैसे ? वह बोला-भगवन्! आपकी आज्ञा से मैं गंगा तट पर गया और वहां सूर्य की ओर देखा, क्योंकि सूर्य के आधार पर दिशा का निर्धारण किया जाता है | मैंने देखा कि गंगा के प्रवाह में बहने वाले तृण आदि पूर्व दिशा की ओर बहे जा रहे हैं। इसमें कभी दिग्मोह भी हो सकता है। दिग्मोह न हो, इसलिए मैंने दो-चार व्यक्तियों को पूछा। उन्होंने भी वही उत्तर दिया कि गंगा पूर्वाभिमुख बह रही है। राजा ने अपने विश्वास के लिए प्रच्छन्न रूप से विश्वस्त व्यक्तियों को मुनि के पीछे भेजा था। उन्होंने भी वही कहा जो मुनि ने कहा था।
राजा ने आचार्य से कहा-भगवन् ! जो हमारी आज्ञा को भंग करता है, उसका हम निग्रह करते हैं। उसे मारते हैं, पीटते हैं, हाथ-पैर-कान आदि का छेदन करते हैं, मृत्युदंड देते हैं, सारा धन लूट लेते हैं, फिर भी कुछेक व्यक्ति आज्ञा का भंग कर देते हैं। लोकोत्तर क्षेत्र में आज्ञा भंग करने वालों को ऐसे दंड का भय नहीं रहता, फिर भी वे ऐसा क्यों ?
आचार्य बोले-लोकोत्तर क्षेत्र में भवदंड का भय रहता है। जो भगवान् की, गणधर आदि की आज्ञा का उल्लंघन करता है उसे जन्मान्तर में अनेक प्रकार के दंड भोगने पड़ते हैं। वह भय उन्हें आज्ञा-भंग से बचाता है। इस प्रकार लोकोत्तर विनय बलवान होता है।
(गा. २५५२-२५५७ टी. प. २०, २१)
१०५. दो प्रतिमाएं
एक रल वणिक सामुद्रिक यात्रा पर जा रहा था। प्रवास के मध्य एक दिन उपद्रव उपस्थित हुआ। वणिक भ हो गया। उसने तब देवता की मनौती की कि यदि यह उपसर्ग शान्त हो जाएगा और मैं सकुशल पार पहुंच जाऊंगा तो एक रत्नमय और एक मणिमय—दो प्रतिमाएं कराऊंगा। मनौती से देवता प्रसन्न हुआ और उसके प्रभाव से उपसर्ग शान्त हो गया। वह निर्विघ्न रूप से समुद्र के पार पहुंच गया। पार पहुंचने के पश्चात् वणिक् का मन लोभ से भर गया और उसने केवल एक प्रतिमा बनवाई। तब देवता ने स्वयं दूसरी प्रतिमा बनवाई। फिर वणिक् दोनों प्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करने लगा। उन दोनों प्रतिमाओं का यह प्रभाव था कि जब उनके पास दीपक रखा जाता, तब दीपक के कारण वे दृश्य होती थीं। जब दीपक नहीं होता तब प्रकाश में भी मणि और रत्न का प्रकाश ही दीख पाता था, प्रतिमाएं नहीं। प्रतिमाओं का यह चमत्कार सुनकर राजा तोसलिक ने उन दोनों को अपने श्रीगृहक भांडागार में रखवा दिया। तब मंगलबुद्धि से तथा परम भक्ति और यल से उनकी पूजा होने लगी। जिस दिन से राजा के भांडागार में वे प्रतिमाएं स्थापित की गईं, उसी दिन से राजा का कोष बढ़ता गया।
(गा. २५६०-२५६४ टी. प. २१, २२)
१०६. सहयोग से लाभ
___ एक कौटुम्बिक था। वह किसानों को ब्याज पर अनाज देता था। उस ब्याज के द्वारा प्राप्त धान्य से कौटुम्बिक के सारे अन्न-भंडार भर गए। एक बार आग लगी और कौटुम्बिक के एक अन्न-भंडार का सारा धान जलकर राख हो गया। आग लगने की बात समूचे गांव में फैल गई। कुछेक किसान आग बुझाने के लिए आए और कुछेक किसानों ने सोचा—हम आग बुझाने क्यों जाएं ? यह कौटुम्बिक क्या हमें धान्य मुफ्त में देता है जो आज हम आग बुझाने जाएं ?
दूसरे कृषकों ने सोचा-इस कौटुम्बिक के प्रभाव से हम जी रहे हैं, यह सोचकर वे सब मिलजुल कर वहां आए और आग को बुझाने में सहयोग करने लगे। कौटुम्बिक उन सब पर प्रसन्न होकर अब उनको ऋण में धान्य बिना ब्याज के देने लगा। जिन्होंने आग बुझाने में मदद नहीं की, उनको कौटुम्बिक ने कहा- 'अब मेरे पास ऋण रूप देने के लिए धान्य नहीं
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