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परिशिष्ट र
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दूसरे राजा के पास भी वैद्य गए। राजा ने उन्हें पूछा-संग्राम के लिए क्या-क्या उपयोगी द्रव्य आवश्यक होंगे? यह पूछने पर वैद्यों ने कहा-'व्रणसंरोहण तैल, अत्यन्त पुराना घी तथा औषधियां मंगाएं। उनमें तैल और घी को पचाया जा सकेगा। व्रणसंरोहण चूर्ण तथा व्रणलेप वाली औषधियां साथ में लें ।' राजा ने अपने सेवकों से सारी सामग्री एकत्रित करने के लिए कहा।
दोनों राजाओं में युद्ध छिड़ा। जिस राजा के साथ वैद्य थे। उन वैद्यों ने मुद्गर आदि से आहत भटों को औषधियों से स्वस्थ कर दिया तथा जो भट घायल हुए थे, उनके व्रणों को सीकर औषधियों का लेप कर दिया। इस प्रकार व्रणित और प्रहारित सभी योद्धा दूसरे दिन के युद्ध के लिए तैयार हो गए। वैद्यों ने दूसरे और तीसरे दिन भी उपचार किया। वह राजा वैद्यों के परामर्श से अपने भटों को स्वस्थ करता हुआ युद्ध जीत गया।
___ दूसरे राजा के योद्धा मारे गए और जो घायल और आहत हुए थे, वे भी युद्ध के लिए अयोग्य ही रहे। वह राजा पराजित हो गया।
(गा. २४०३-२४०६ टी. प. २१, २२)
१०२. सूपकार और बकरी
राजा के सूपकार ने राजा के लिए मांस पकाने के लिए रखा। इतने में ही एक बिल्ली आई और मांस के खण्ड को उठाकर ले गई। सूपकार भयभीत हो गया। वह मांस की खोज करने लगा, इतने में ही अचानक एक बकरी वहां आ गई। उसके गले में एक पोटली बंधी हुई थी। उसमें भोजन के काम में आने वाले उपस्कार थे। सूपकार ने उस बकरी को मार डाला, यह सोचकर कि यह स्वतः आई हुई बकरी है। उसे मारने में कोई अपराध नहीं होगा। राजा का उपालंभ भी नहीं आएगा और मेरा भी काम बन जाएगा।
(गा. २४५३, २४५४ टी प२) १०३. अकाल में संज्ञाभूमि जाने से हानि
इन्द्रपुर नगर में इन्द्रदत्त राजा था। उसके पुत्र ने पुतली के अक्षिचन्द्रक का वेध कर यश प्राप्त किया। राजा की प्रसिद्धि हुई। ऐसे व्यक्तियों का आगमन आचार्यों के पास होता रहता है। यदि वे अकाल में संज्ञाभूमि में जाते हैं और उस समय यदि राजा आदि महान् व्यक्ति दर्शनार्थ आते हैं तो उन्हें दर्शन किए बिना ही लौटना पड़ता है। यदि अकाल में संज्ञाभूमि में न जाएं तो आने वाले विशिष्ट व्यक्ति धर्मकथा सुनकर, विरक्त हो सकते हैं, प्रव्रज्या ग्रहण कर सकते हैं। उनकी प्रव्रज्या से प्रवचन की प्रभावना होती है। कुछेक श्रावक भी बन सकते हैं, कुछ धर्मरुचि भी हो सकते हैं और इन सबसे संघस्थ साधुओं पर महान् उपकार होता है। अकाल में संज्ञाभूमि में जाने पर इन गुणों की हानि होती है। (गा. २५४६ टी.प.१६) १०४. बलवान् कौन ? लोकोत्तर विनय या लौकिक विनय ?
एक राजा और दंडिक धर्म श्रवण के लिए आचार्य के पास गए। आचार्य ने प्रवचन प्रारंभ किया। प्रवचन के मध्य राजा अनेक बार मूत्र-विसर्जन के लिए उठा। आचार्य प्रच्छन्न रूप से मूत्र-विसर्जन करते और साधु उसे ले जाते। राजा के मन में प्रश्न हुआ-मैं प्रणीत आहार करता हूं, फिर भी मुझे मूत्र-विसर्जन के लिए बार-बार उठना पड़ता है और आचार्य रूखा आहार करते हैं फिर भी मूत्र-विसर्जन के लिए नहीं उठते। ऐसा प्रतीत होता है कि पास में जो मुनि बैठा है, वह वस्त्र में छिपाकर मात्रक आचार्य को देता है। आचार्य उसमें मत्र-विसर्जित करते हैं। किंत यह पूछना अविनय होता है, इसलिए उपाय से पूछना चाहिए। वह आचार्य के पास गया और बोला -भगवन् ! लौकिक विनय बलवान होता है या लोकोत्तर विनय ? आचार्य बोले-तुम इसकी परीक्षा करो। मैं मानता हूं कि लोकोत्तर विनय बलवान होता है।
राजा ने परीक्षा प्रारंभ की। आचार्य ने कहा--जिस शिष्य पर तुम्हारा विश्वास हो और आकृति से जिसे तुम मानते हो कि यह विनयभ्रंशी नहीं है, उसे तुम यह जानने के लिए भेजो कि गंगा किस ओर बहती है, इसकी जानकारी कर हमें बताओ। राजा ने विश्वस्त और आकृतिमान मुनि से कहा—जाओ, यह ज्ञात कर आओ कि गंगा किस ओर बहती है। वह गया नहीं।
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