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परिशिष्ट
६८. पृच्छा का प्रवर्तन सकारण
भोजकुल के सेवक दो भाई थे। राजा ने उन्हें ससम्मान अपने यहां रख लिया। राजकुल में उनका सर्वत्र आना-जाना था। कहीं रोक-टोक नहीं थी। छोटे भाई ने अन्तःपुर में अनाचार का सेवन कर डाला। राजा ने उसका प्रवेश निषिद्ध कर दिया। अब बड़ा भाई भी राजा की आज्ञा के बिना प्रवेश नहीं कर पाता था। प्रतिहार के कहने पर राजा पूछता-आज कौन आया है छोटा भाई या बड़ा भाई ? प्रतिहार कहता—बड़ा भाई आया है, तब राजा उसके प्रवेश की आज्ञा देता। यह पूछताछ पहले नहीं होती थी, परंतु छोटे भाई के दुराचार के पश्चात् यह पृच्छा होने लगी। (गा. २३५८ टी. प. १४) ६६. पृच्छा क्यों ?
(क) एक नगर था। वहां सभी दुकानों पर अच्छे तिल और अच्छी किस्म के चावल मिलते थे। कालान्तर में एक वणिक के मन में कपट उत्पन्न हुआ। उसने खराब तिल बेचने के लिए रखे। इसी प्रकार दूसरे वणिक ने खराब किस्म के चावल दुकान पर बेचने हेतु रखे। अब लोग पूछने लगे- तुम्हारी दुकान पर तिल कैसे हैं ? चावल कैसे हैं ? पहले कभी ऐसी पूछताछ नहीं होती थी।
(ख) एक नगर की एक दिशा में अनेक मंदिर थे। वहां अनेक शैव भिक्षु रहते थे। वे सुशील थे। लोग उन सबकी पूजा करते थे। कालान्तर में कुछेक मंदिरों के भिक्षु दुःशील हो गए। अब निमंत्रण देने की वेला में लोग पूछने लगे, कौन कैसा है ? पहले यह पृच्छा नहीं थी।
(ग) एक गांव में गाएं बहुत थीं। एक बार वहां पशुओं की बीमारी फैली और वहां के पशु उसकी चपेट में आ गए। अब कोई व्यक्ति गाएं लाता तो लोग पूछते-ये गाएं किस गांव से लाए हो ? ये किस गोवर्ग की हैं ? पहले ऐसी पृच्छा नहीं होती थी। .
__(गा. २३५८ टी. प. १४) १००. कपटी उपासक
भिक्षुओं का एक उपासक विषमिश्रित भोजन भिक्षुओं को देता था। वह कभी-कभी मदकारक कोद्रव का भोजन भी दान में देता था। इस विषम भोजन के कारण समूचे भिक्षुगण में मारि का प्रकोप हुआ। इस कारण से सारा संघ छिन्न-भिन्न हो गया। लोगों ने विषयुक्त भोजन देने वाले भिक्षु उपासक को जान लिया। एक बार वह भिक्षु उपासक लोगों के बीच वाद में पराजित हो गया। वह कपटपूर्वक आचार्य के पास जाकर बोला-आप मुझे अर्हत् धर्म का उपदेश दें। आचार्य ने उपदेश दिया। वह कपटपूर्वक बोला—आज से मैंने आपके पास अर्हत् धर्म स्वीकार कर लिया है। मैंने भिक्षुओं के निमित्त एक बड़ा जीमनवार किया है। वहां बड़ी मात्रा में परमान्न पकाया गया है। उसको असंयत व्यक्ति न ले जाएं, न खाएं, इसलिए आप मुझ पर अनुग्रह कर मुनियों को गोचरी के लिए भेजें। साधुओं ने सोचा, यह सच कह रहा है। हमें वहां भिक्षा के लिए जाना चाहिए। उस कपट उपासक ने भोजन में विष मिला दिया और साधओं को पर्याप्त भोजन दिया। उस भोजन से कुछेक साधु मर गए और कुछेक बेहोश हो गए।
__ (गा. २३८२ टी.प. १८) १०१. युद्ध और वैद्य
__ दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। एक राजा के पास कुछ वैद्य उपस्थित हुए और साथ में रहने की प्रार्थना की। राजा ने कहा—युद्ध के प्रसंग में वैद्यों का कोई काम नहीं है। तुम युद्ध विद्या में कुशल नहीं हो। तुम्हारा युद्ध-स्थल में क्या प्रयोजन है ? वे वैद्य बोले-राजन् ! यद्यपि हम युद्ध विद्या में निपुण नहीं हैं फिर भी युद्ध में घायल हुए सैनिकों के लिए हमारी वैद्यक्रिया अत्यन्त उपयोगी है। इसलिए हम साथ में जाना चाहते हैं। आप अनेक प्रकार की औषधियां, अनेक प्रकार के व्रणपट्ट तथा विविध तैल साथ में ले लें। यह कहने पर राजा ने कहा-आप अनागत अमंगल की भावना न करें। आप अपने घर चले जाएं।
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