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परिशिष्ट
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६५. प्रमादी माली
___ एक बाड़ी थी, उसमें अनेक प्रकार के फलदायी वृक्ष और शाक-सब्जी आदि उगाई जाती थी। एक माली को वहां रखा। वह विषय प्रमाद और द्यूतप्रमाद में फंस गया। वह वृक्षों की सार-संभाल नहीं करता, न उन्हें पानी पिलाता। उस बाड़ी को लोगों ने तथा गाय आदि पशुओं ने नष्ट कर डाला। वह सूख गयी। उससे कोई फल-साग-सब्जी आदि प्राप्त नहीं होते। बाड़ी के स्वामी ने पूछा-बाड़ी का नाश कैसे हुआ ? उस माली ने कहा-मैं तो इसकी पूरी पालना करता था। मेरा कोई प्रमाद नहीं है। स्वामी ने गवेषणा की और यह ज्ञात किया कि बाड़ी भग्न हो गई है, गाय आदि पशुओं के कारण तथा पानी न सींचने के कारण सूख गई है। बाड़ी के स्वामी ने उस माली को नौकरी से हटा दिया। उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि वह भविष्य में कभी प्रमाद नहीं करेगा। परंतु स्वामी ने उसे काम पर रखने से इनकार कर दिया।
(गा. २३२६ टी. प. ७) ६६. स्तूप के लिए विवाद
मथुरा नगरी में एक तपस्वी था। वह आतापना लेता था। उसकी इस कठोर चर्या को देखकर एक देवता उसका सम्मान करते हुए वन्दना कर बोला-भगवन् ! मुझे जो करना है उसके लिए आप आज्ञा दें। तपस्वी ने कहा-क्या मेरा कार्य असंयती से होगा? यह सुनकर देवता के मन में तपस्वी के प्रति अप्रीति हो गई। फिर भी उसने कहा-मुझसे आपका कार्य सम्पन्न होगा। तब देवता ने एक सर्वरत्नमय स्तूप का निर्माण किया। वहां भगवे वस्त्रधारी भिक्षु आये और बोले-यह स्तूप हमारा है। इस स्तूप के कारण संघ का उनके साथ छह माह तक विवाद चला। संघ ने पूछा-इस संघर्ष के लिए कौन समर्थ है ? एक व्यक्ति बोला-अमुक तपस्वी इसके लिए समर्थ है। तब संघ ने तपस्वी को बुलाकर कहा- तपस्विन्! आप आराधना कर देवता का आह्वान करें। तपस्वी ने आराधना की। देवता उपस्थित होकर बोला-आदेश दें, मैं आपके लिए क्या करूं ? तपस्वी बोला-वैसा कार्य करो जिससे संघ की विजय हो। तब देवता ने क्षपक की भर्त्सना करते हुए कहा-'आज मेरे जैसे असंयती से कार्य कराने का प्रयोजन उपस्थित हो गया है। अब एक उपाय बताता हूँ। आप राजा के पास जाकर कहें यदि यह स्तूप इन भिक्षुओं का है तो कल इस स्तूप पर लाल पताका फहराएगी और यदि यह स्तूप हमारा होगा तो सफेद पताका दिखेगी।' वे राजा के पास गए। सारी बात कही। राजा ने यह उक्ति स्वीकार कर ली। राजा ने दोनों पक्षों को बात बता दी और स्तूप की रक्षा के लिए अपने विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया। देवता ने रात ही रात स्तूप पर सफेद पताका फहरा दी। प्रभात में सभी ने स्तुप पर सफेद पताका लहराते देखी। संघ जीत गया।
(गा. २३३०, २३३१ टी. प. ८) ६७. कूप की पेयता, अपेयता
एक गांव की एक दिशा में मीठे पानी के अनेक कूप थे। उनमें से कई कूप आगंतुक दोषों तथा विस्वाद के कारण अपेय बन गए थे। कुछ कूप उस जमीन से उत्थित खार-लवण आदि विषम पानी के स्रोतों के कारण नष्ट हो गए। कुछ कुओं के पानी पीने से कोढ़ आदि रोग तथा शरीर में दोष उत्पन्न हो जाता था। कुछेक कुओं का पानी मृत्यु का कारण बनता था। कुछ कूपों का पानी स्नान और आचमन में काम आता था और कुछेक का नहीं। लोगों को इन कुओं के दोष ज्ञात थे, इसलिए पानी लाने वालों को पूछते—यह पानी कहां से लाए हो ? यदि निर्दोष होता तो वे लोग उसे पीने के काम में लेते और सदोष होता तो उसका वर्जन करते थे। यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर सदोष पानी लाता तो वे उसकी भर्त्सना करते, उसे ताड़ना देते। यदि व्यक्ति अजान में लाता तो उसे सावधान करते हुए कहते-फिर कभी सदोष पानी मत लाना।
(गा. २३५७ टी.प. १३)
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