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व्यवहार भाष्य
साध्वियों को पढ़ाने का निर्देश। ३०५४,३०५५. अप्रशस्त भाव से दिए जाने वाले प्रवाचना के
दोष।
करे-इस विषयक शिष्य का प्रश्न और आचार्य
का समाधान। २६४१-५०. स्त्री को प्रव्रजित करने की चार तुलाएं एवं
उनका विवरण। २६५१,२८५२. साध्वी का साधु को प्रव्रजित करने का उद्देश्य । २८५३-६१. क्षेत्रविकृष्ट तथा भवविकृष्ट दिशा संबन्धी
विवरण तथा दृष्टान्त। २६६२-६८. अन्य आचार्य के पास जाने की इच्छुक भिक्षुणी
के मार्गगत दोष। २६६६-७२. क्षेत्रविकृष्ट, भवविकृष्ट विषयक अपवाद । २६७३-७८. निर्ग्रन्थ सम्बन्धी क्षेत्रविकृष्ट तथा भव-विकृष्ट
का विवरण। २६७६-३००६. कलह और अधिकरण के विविध पहलू तथा
उपशमन विधि। ३००७-१३. निर्ग्रन्थिनियों के पारस्परिक कलह के कारण
एवं उपशमन विधि। ३०१४,३०१५. स्वपक्ष के द्वारा परपक्ष को स्वाध्याय के लिए
उद्दिष्ट करने पर प्रायश्चित्त। ३०१६. स्तुति और स्तव की परिभाषा। ३०१७. अकाल स्वाध्याय में ज्ञानाचार की विराधना। ३०१८ कालादि उपचार के बिना विद्या की सिद्धि नहीं
तथा क्षुद्र देवताओं द्वारा उपद्रव। ३०१६. सूत्र देवताधिष्ठित क्यों? ३०२०,३०२१. विद्याचक्रवर्ती का यत्किंचित् कथन विद्या क्यों?
दृष्टान्त और उपनय। ३०२२,३०२३. जिनेश्वर की वाणी के आठ गुण। ३०२४,३०२५. अकाल में अंग पढने का निषेध। ३०२६. अकाल में आवश्यक का निषेध क्यों नहीं? ३०२७. अकाल में स्वाध्याय के दोष। ३०२८-३१. द्रव्य और भाव विष का कथन। ३०३२,३०३३. श्रमण-श्रमणियों को स्वपक्ष में ही वाचना देने
का निर्देश। ३०३४-४४ स्वाध्यायकरण काल तथा स्वपक्ष-परपक्ष की
उद्देशन-विधि और अपवाद। ३०४५-४७. साध्वी का साधु की निश्रा में स्वाध्याय करने
के गुण-दोष। ३०४८ ज्ञान और चारित्र के बिना दीक्षा निरर्थक । ३०४६,३०५०. विशुद्धि के अभाव में चारित्र का अभाव। ३०५१-५३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना के लिए
३०५६-५८. साधु साध्वी को प्रवाचना कब दे? ३०५८,३०६०. मुनि और साध्वी की परीक्षा के बिंदु । ३०६१-७७. परीक्षा न करने पर होने वाले दोष और उसका
प्रायश्चित्त। ३०७८-८२. वाचना के लिए योग्य साध्वी का
स्वरूप-कथन। ३०८३,३०८४. भार्या-साध्वी आदि को वाचना देने का निषेध। ३०८५-६३. कौन किसको वाचना दे? तथा वाचना की द्रव्य
आदि से यतना। ३०६४,३०६५. गणधर साध्वियों को वाचना देते समय कैसे
बैठे? ३०६६. वाचना किनको न दे? ३०६७. उपाध्याय भी स्थविर की सनिधि में वाचना
दे। ३०६८३०६६. वाचना के समय साध्वियां कैसे बैठे? ३१००. स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय करने का निर्देश। ३१०१,३१०२. अस्वाध्याय के भेद-प्रभेद तथा दोष। ३१०३,३१०४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने के दोष तथा
राजा का दृष्टान्त। ३१०५-३१०६. अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के हेतु
उससे होने वाले दोष तथा पांच पुरुषों का
दृष्टान्त। ३११०-१३. संयमोपघाती अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३११४-१६. औत्पातिक अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३११७-२४. देव सम्बन्धी अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३१२५-३०. व्युद्ग्रह सम्बन्धी अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३१३१-५२. औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्यायिक के
भेद-प्रभेद। ३१५३-५६. स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय करने का निर्देश
तथा कालग्रहण की सामाचारी। ३१५७,३१५८ काल प्रत्युपेक्षण की २४ भूमियां। ३१५६. काल की तीन भूमियों के प्रत्युपेक्षण का
निर्देश। ३१६०,३१६१. दैवसिक अतिचार का चिन्तन। ३१६२-६७. आवश्यक के बाद तीन स्तुति करने का निर्देश
और तदनन्तर काल प्रत्युपेक्षणा की विधि।
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