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________________ विषयानुक्रम [ १३३ २७४८-५७. लज्जा, भय आदि के कारण पापाचरण से रक्षा। २७५८-६४. शुभ-अशुभ मनःपरिणामों की स्थिति का विभिन्न उपमाओं से निरूपण। २७६५,२७६६. एक लेश्यास्थान में असंख्य परिणाम-स्थानों का कथन। २७६७. लेश्यागत विशुद्ध भावों से मोह का अपचय। २७६८. शुभ परिणाम से मोह कर्म का क्षय होता है या नहीं? २७६-७८ एकाकी विहरण के दोष। २७७६-८१. बहुश्रुत के एकाकीवास का समर्थन। २७८२. बहुश्रुत के त्वग्दोष होने के कारण एकाकी रहने का विधान। २७८३-८५. त्वग्दोष के प्रकार तथा उसकी सावधानी के उपाय। २७८६-८८. त्वग्दोषी की आचार्य द्वारा सारणा-वारणा अन्यथा प्रायश्चित्त। २७८६-६२. त्वग्दोष संक्रमण के हेतु। २७६३-२८०२. अबहुश्रुत के त्वग्दोष होने पर यतना विधि। २८०३-२८०६. हस्तकर्म आदि से शुक्र निष्कासन। २८०७-१२. शुक्र निष्कासन के विविध उपाय। २८१३-१८. साध्वी के एकाकी रहने के दोष। २८१६-२३. संयम भ्रष्ट साध्वी के पुनः प्रव्रजित होने की। आकांक्षा। २८२४-३१. संयमभ्रष्ट साध्वी को गण से विसर्जित करने की विधि। २८३२,२८३३. इत्वरिक और यावत्कथिक दिग्बंध का कथन। २८३४. सूत्र की संबंध गाथा। २८३५-३८. गण से निर्गत भिक्षुणी का पुनः आना। २८३६-४१. अन्यदेशीय वस्त्रों से प्रावृत भिक्षुणी को देखकर वृषभों का ऊहापोह। २८४२-४५. साध्वियों द्वारा लब्ध वस्त्रों को गुरु को दिखाने की परम्परा और न दिखाने पर प्रायश्चित्त। २८४६,२८४७. प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड के लिए शिष्य का प्रश्न एवं आचार्य का उत्तर। २८४८-५३. पति द्वारा परित्यक्त स्त्री की प्रव्रज्या और उसे पुनः गृहस्थ जीवन में लाने में परिव्राजिका की भूमिका। २८५४-६०. प्रव्रज्या के पारग-अपारग का परीक्षण। २८६१-६६. मायावी भिक्षुणी द्वारा छिद्रान्वेषण। २८६७. सूत्र और अर्थ की पारस्परिकता। २८६८ अन्य गण से आगत साध्वियों को वाचना आदि। २८६६. आभीरी की प्रव्रज्या, विपरिणाम और उसका प्रायश्चित्त। २८७०-७७. समागत निर्ग्रन्थी को गण में न लेने के कारण और प्रायश्चित्त। २८७-६१. प्राघूर्णक मुनि की विविध शंकाएं एवं उनके आधार पर विसांभोजिक करने पर प्रायश्चित्त। २८६२-६५. परोक्ष में दिसांभोजिक करने के दोष । २८६६-२६०५ सांभोजिक और विसांभोजिक व्यवहार किसके साथ? २६०६. आगत मुनियों की द्रव्य आदि से परीक्षा और फिर सहभोज। २६०७. ज्ञात-अज्ञात के साथ बिना आलोचना के सहभोज करने पर प्रायश्चित्त। २६०८. ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा आर्य महागिरि से पूर्व नहीं, बल्कि आर्य सुहस्ति के बाद। २६०६-११. विभिन्न क्षेत्रों से आए मुनियों के आने पर की जाने वाली यतना। २६१२. स्वदेशस्थ मुनियों के प्रति की जाने वाली यतना। २६१३,२६१४. अभिनिवारिका से आगत मुनि गुरु के पास कब जाए? २६१५. कालवेला के अपवाद के कारण। २६१६. कालवेला में न आने पर प्रायश्चित्त । २६१७,२६१८. प्राघूर्णक मुनियों के आने पर तत्रस्थ मुनियों का कर्तव्य। २६१६,२६२०. आगत मुनियों का तीन दिनों का आतिथ्य और भिक्षाचर्या की विधि। २६२१,२६२२. निर्ग्रन्थ सूत्र के बाद निर्ग्रन्थी सूत्र का कथन और उसकी प्रासंगिकता। २६२३. साध्वी के परोक्षतः सम्बन्ध-विच्छेद का कथन। २६२४-२८. संयतीवर्ग को विसांभोजिक करने की विधि । २६२६. निर्ग्रन्थिनी की दीक्षा का प्रयोजन। २६३०-३३. सूत्रगत प्रयोजन के बिना साध्वी को प्रव्रजित करने के दोष। २६३४-४०. मुनि पुरुष को और साध्वी स्त्री को प्रव्रजित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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