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व्यवहार भाष्य
मुनियों का कर्त्तव्य। २५६०-६५. . आचार्य की रक्षा का दृष्टान्त द्वारा समर्थन। २५६६. आचार्य की रक्षा के लाभ। २५६७,२५६८. तीसरा अतिशय-अतिशायी प्रभुत्व। २५६६-७. आचार्य को भिक्षा के लिए न जाने के हेत। २५७२-६६. आचार्य को गोचरी से निवारित न करने पर
प्रायश्चित्त तथा उससे होने वाले दोष। २६००-२६०२. आचार्य द्वारा भिक्षार्थ न जाने के गण। २६०३-२६०६. कारणवश आचार्य का भिक्षार्थ जाने पर शिष्य
का कर्त्तव्य। २६०७-२६०६. गोचरचर्या सम्बन्धी आचार्य और शिष्य का
ऊहापोह। २६१०-१४. कौटुम्बिक से आचार्य की तुलना। २६१५-१७. निरपेक्ष और सापेक्ष दंडिक का दृष्टान्त।
आचार्य के भिक्षार्थ जाने के कारणों का निर्देश
तथा भिक्षार्थ न जाने पर प्रायश्चित्त। २६२६-२८ भिक्षा की सुलभता न होने पर आचार्य किन
किन को भिक्षार्थ भेजे? २६२६,२६३०. गणिपिटक पढ़ने वालों की वैयावृत्त्य से महान्
निर्जरा। २६३१. विभिन्न आगमधरों की वैयावृत्त्य से निर्जरा की
तरतमता। २६३२. प्रावचनी आचार्य की वैयावृत्त्य से महान्
निर्जरा। २६३३-३६. भावों के आधार पर निर्जरा की तरतमता। २६३७,२६३८ निश्चयनय से निर्जरा का विवेचन। २६३६.
सूत्रधर, अर्थधर एवं उभयधर की वैयावृत्त्य से
निर्जरा। २६४०-४६. सूत्र और अर्थ से सूत्रार्थ श्रेष्ठ तथा शातवाहन
का दृष्टान्त। २६४७,२६४८. अर्थमंडली में स्थित आचार्य का अभ्युत्थान
विषयक गौतम का दृष्टान्त। २६४६-६०.
अभ्युत्थान से व्याक्षेप आदि दोष । २६६१-६४. अभ्युत्थान के तीन कारण। २६६५. अभ्युत्थान का क्रम। २६६६-६६. सापेक्ष-निरपेक्ष शिष्य के सम्बन्ध में शकट का
दृष्टान्त। २६७०,२६७१. द्रव्य और भाव भक्ति में लोहार्य और गौतम
का दृष्टान्त।
२६७२. गुरु की अनुकम्पा और गच्छ की अनुकम्पा से
तीर्थ की अव्यवच्छित्ति। २६७३. गुरु की गच्छ के प्रति अनुकम्पा से ही दशविध
वैयावृत्त्य का समाचरण। २६७४-८२. आचार्य के पांच अन्य अतिशयों का विवरण। २६६३. हाथ, मुंह आदि धोने के लाभ। २६८४. आचार्य के योगसंधान के प्रति शिष्यों की
जागरूकता। २६८५-६२ अतिशयों को भोगने में विवेक, आर्य समुद्र
तथा आर्य मंगु का निदर्शन। २६६३-२७२. पूर्व वर्णित पांच अतिशयों में अंतिम दो
अतिशयों का वर्णन। २७०३. भद्रबाहु का 'महापान' ध्यान और महापान की
व्युत्पत्ति। २७०४.
आचार्य का वसति के बाहर रहने का कारण। २७०५.
गणावच्छेदक तथा गणी के दो अतिशयों का
कथन। २७०६,२७०७. भिक्षु के दश अतिशय। २७०८.
सूत्राध्ययन किए बिना एकलवास करने का
निषेध और उसका प्रायश्चित्त । २७०६,२७१०. अपठित श्रुत वाले अनेक मुनियों का एक
गीतार्थ के साथ रहने का विधान। २७११-१८ अपठितश्रुत मुनियों का गच्छ से अपक्रमण एवं
उससे होने वाले दोष। २७१६,२७२०. अपठितश्रुत मुनियों के एकान्तवास का
विधान। २७२१-२४. एक या अनेक का एकलवास और सामाचारी
का विवेक। २७२५-२८ गीतार्थनिश्रित की यतना और मुनियों के
संवास की व्यवस्था। २७२६-३३. पृथक् पृथक् वसति में रहने का विधान और
उसकी यतना-विधि। २७३४-३८ अपठितश्रुत मुनियों के साथ आचार्य का
व्यवहार और तीन स्पर्धकों का सहयोग। २७३६-४४. एक दिन में अपठितश्रुत स्पर्धकों का शोधन
और प्रायश्चित्त। २७४५,२७४६. बहुश्रुत को भी अकेले रहने का निषेध। २७४७ अभिनिर्वगड़ा के प्रकार एवं एकाकी रहने का
प्रायश्चित्त।
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