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निशीथ भाष्य में छेद - सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथ चूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत हैं ।'
छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं। उनको आलोचना देने का अधिकार है छेदसूत्रों के व्याख्याग्रंथों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है।
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छेदसूत्र रहस्य सूत्र हैं। योनिप्राभृत आदि ग्रंथों की भांति इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जाती थी। निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जहां मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों वहां इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है।
पंचकल्प भाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं।' अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसूत्रों की चाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है। अगीतार्थ बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या या नेषेधिकी में दी जाती थी क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाएं।"
व्यवहार भाष्य
छेदसूत्रों का कर्तृत्व
छेदसूत्र पूर्वो से निर्यूढ हुए अतः इनका आगम साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ - इन चारों छेदसूत्रों का निर्यूहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ, ऐसा उल्लेख नियुक्ति एवं भाष्य साहित्य में मिलता है। " दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है ।" किंतु निशीथ के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् निशीथ को भी भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ मानते हैं लेकिन यह तर्क संगत नहीं लगती। निशीय चतुर्दशपूर्वघर भद्रबाहु द्वारा निर्वृढ़ कृति नहीं है, इस मत की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं
दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति एवं पंचकल्प भाष्य में भद्रबाहु को दशा, कल्प एवं व्यवहार इन तीनों सूत्रों के कर्ता के रूप में वंदना की है, वहां आचारप्रकल्प - निशीथ का उल्लेख नहीं है । "
१. निभा. ६१८४ चू. पू. २५३ ।
२.
निभा. ६३६५; व्यभा ३२० ।
३. व्यभा. ४४३२-३५ ।
४. निभा. ५६४७ चू. पृ. १६०, व्यभा ६४६ टी. प. ५८ ।
५. निभा. ६२२७ चू. पृ. २६१ ।
६. पंकभा. १२२३: णाऊणं छेदसुतं, परिणामगे होति दायव्वं ।
७.
व्यभा. ४१००, ४१०१ ।
こ
व्यभा. १७३६ ।
६.
क व्यभा. ४१७३
सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि ।
तत्तो च्चिय चिन्हू, पकष्पकप्पो यववहारो
ख. पंकमा २३ आवारदसाकप्पो, ववहारी नवमपुव्यणीसंदो ग. आचारांगनियुक्ति २८१
आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स ततियवत्यूओ । आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेदा। १०. क. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
चंदामि भद्दबाहुं पाईणं परिमलगतसुयनाणीं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ ख. पंकभा. १२ : तो सुत्तकारओ खलु, स भवति दसकप्पववहारे।
११. दश्रुनि १ पंकभा. १ ।
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