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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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• व्यवहार सूत्र में जहां आगम-अध्ययन की काल-सीमा के निर्धारण का प्रसंग है, वहां भी दशाश्रुत, व्यवहार एवं कल्प का नाम एक साथ आता है। आवश्यक सूत्र में भी इन तीन ग्रंथों के उद्देशकों का ही एक साथ उल्लेख मिलता है। निशीथ को इनके साथ न जोड़कर पृथक उल्लेख किया गया है।
. श्रुतव्यवहारी के प्रसंग में भाष्यकार ने कल्प और व्यवहार इन दो ग्रंथों तथा इनकी नियुक्तियों के ज्ञाता को श्रुतव्यवहारी के रूप में स्वीकृत किया है। वहां निशीथ/आचारप्रकल्प का उल्लेख नहीं है। निशीथ की महत्ता सूचक अनेक गाथाएं व्यभा में हैं, पर वे आचार्यों ने बाद में जोड़ी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उत्तरकाल में निशीथ बहुत प्रतिष्ठित हुआ है। अन्यथा कल्प और व्यवहार के साथ भाष्यकार अवश्य निशीथ का नाम जोड़ते।
.निशीथ का निर्वृहण भद्रबाह ने किया, यह उल्लेख केवल पंचकल्पचूर्णि में मिलता है। इसका कारण संभवतः यह रहा होगा कि अन्य छेदग्रंथों की भांति निशीथ का निर्वृहण भी प्रत्याख्यान पूर्व से हुआ इसीलिए कालान्तर में निर्वृहण कर्ता के रूप में भद्रबाहु का नाम निशीथ के साथ भी जुड़ गया।
• विंटरनित्स ने निशीथ को अर्वाचीन माना है तथा इसे संकलित रचना के रूप में स्वीकृत किया है। • विद्वानों के द्वारा कल्पना की गयी है कि निशीथ का निर्वृहण विशाखगणि द्वारा किया गया, जो भद्रबाहु के समकालीन थे।
दशाश्रुतस्कंध के निर्गृहण के बारे में भी एक प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है कि इसमें महावीर का जीवन एवं स्थविरावलि है अतः यह पूर्वो से उद्धृत कैसे माना जा सकता है? इस प्रश्न के समाधान में संभावना की जा सकती है कि इसमें कुछ अंश बाद में जोड़ दिया गया हो।
छेदसूत्रों का निर्ग्रहण क्यों किया गया, इस विषय में भाष्य साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार नौवां पर्व सागर की भांति विशाल है। उसकी सतत स्मति में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। जब भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी तब चारित्र की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का नि!हण किया। इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का अभाव हो जाएगा अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रंथों का नि!हण किया।
चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि भद्रबाह ने आयुबल, धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का निर्ग्रहण किया किन्तु आहार, उपधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं।१० ___नि!हण के प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं-जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल
के असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों पर अनकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाहु ने आरोहण किया और अनुकंपावश छेद ग्रंथों का संग्रथन किया।" इस प्रसंग में भाष्यकार ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है।
१. व्यसू. १०/२७:पंचवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उद्दिसित्तए। २. आवसू.८.छव्वीसाए दसाकप्पयवहाराणं उद्देसणकालेहि। ३. व्यसू. १०/२५ : तिवासपरियाचस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारपकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए। ४. व्यभा.४४३२-४४३६ । ५. पंचकल्पचूर्णि (अप्रकाशित)। ६. A History of ........p. 446. ७. व्यभा. १७३७। ८ पंकभा. २६-२६॥ ६. पंकभा.४२। १०. दश्रुचू.पृ. ३। ११. पकभा.४३-४६ । १२. पंकभा.४७, ४८।
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