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परिशिष्ट-७
देशीशब्द
जिन शब्दों का कोई प्रकृति प्रत्यय नहीं होता, जो व्युत्पत्तिजन्य नहीं होते तथा जो किसी परम्परा या प्रान्तीय भाषा से आए हों, वे देशी शब्द हैं।
वैयाकरण त्रिविक्रम का कहना है कि आर्ष और देश्य शब्द विभिन्न भाषाओं के रूढ़ प्रयोग हैं, अतः इनके लिए व्याकरण की आवश्यकता नहीं है।' अनुयोगद्वार में वर्णित नैपातिक शब्दों को देशी शब्दों के अन्तर्गत माना जा सकता है। २ आगम एवं उनके व्याख्या ग्रन्थों में १८ प्रकार की देशी भाषाओं का उल्लेख मिलता है। ३ वे १८ भाषाएं कौन-सी थीं, आगमों में इनका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।
भिन्न-भिन्न प्रान्त के व्यक्ति दीक्षित होने के कारण आचार्य शिष्यों का कोश-ज्ञान एवं शब्द-ज्ञान समृद्ध करने के लिए विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग करते थे। भाष्य साहित्य में अनेक प्रान्तीय देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है।
व्यवहार भाष्य में देशी शब्दों का प्रचुर प्रयोग मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने अनेक शब्दों के लिए 'देशीवचनमेतद्', 'देशीत्वात', 'देशीपदे' आदि का प्रयोग किया है, लेकिन इनके अतिरिक्त भी अनेक देशी शब्दों और देशी धातुओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। अनेक स्थलों में तो टीकाकार ने देशीपद का स्पष्ट निर्देश किया है जैसे
• फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयति । •विष्फालेइ देशीवचनमेतत् प्रच्छतीत्यर्थः ।
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वान् देशी मानते हैं तथा कुछ तद्भव के रूप में स्वीकृत करते हैं किन्तु ये देशी होनी चाहिए। इसका एक हेतु है कि मलयगिरि ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में स्पष्ट निर्देश किया है-'साहइ त्ति देशीवचनतः कथयति ।४ साह धातु कथ धातु के आदेश रूप में प्राप्त है। अतः हमने भी आदेश प्राप्त धातुओं को इस परिशिष्ट में समाविष्ट किया है।
इल्ल एवं इर प्रत्यय वाले शब्द देशी नाममाला में देशी रूप में संगृहीत हैं तथा मलयगिरि ने भी पढमेल्लुग को देशी माना है। इसी आधार पर अंतिल्ल, भंगिल्ल आदि शब्दों का इस परिशिष्ट में समाहार किया गया है। ६
संख्यावाची शब्द जैसे—पणपण्ण, पण्णास, बयालीस आदि को भी देशी माना है। अनुकरणवाची शब्दों के बारे में विद्वानों में मतभेद है पर हमने इनको देशी रूप में स्वीकृत किया है। जैन विश्वभारती, लाडनूं से प्रकाशित 'देशीशब्दकोष' में हमने दस हजार से अधिक देशीशब्दों का चयन किया है। प्रस्तुत परिशिष्ट में देशी धातुओं के प्रारंभ में हमने बिन्दु का चिह्न दिया है।
१. प्राश ७ : देश्यमार्ष च रूढत्वात्, स्वतन्त्रत्वाच भूयसा।
लक्ष्म नापेक्षते तस्य, सम्प्रदायो हि बोधकः ।। २. अनुद्वा २७० ३. राजटी पृ. ३४१, ज्ञा. १1१1८८। ४ आवमटी १, पृ. १६० ५. प्राकृत व्याकरण ४/२ ६. आवमटी प ११६ : प्रथमैल्लुका देशीवचनमेतत् ।
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