________________
१२२ ]
व्यवहार भाष्य
E७६
६६५-७१. आचार्य आदि पंचक न होने पर आलोचना
एवं प्रायश्चित्त किससे? ६७२-७४. आहार, उपधि आदि की गवेषणा। ६७५,६७६. प्रायश्चित्त ग्रहण करने के विविध ऐतिहासिक
एवं प्रागैतिहासिक तथ्य। ६७७. प्रायश्चित्त का वहन करते समय दूसरे
प्रायश्चित्तार्ह कार्य की भी आलोचना करने का
निर्देश। ६७८ सम्बन्ध गाथा के माध्यम से प्रायश्चित्त दान
की भिन्न-भिन्न विधियों का संकेत। दुग, साधर्मिक एवं विहार आदि शब्दों के
निक्षेप कथन की प्रतिज्ञा। ९८०-८५. दुग शब्द के छह निक्षेप तथा उनका विस्तार । ६८६-६४. साधर्मिक के बारह निक्षेप तथा उनका विस्तृत
विवरण। ६६५-६८ विहार के चार निक्षेप एवं उनका वर्णन। ६E-१००२. अगीतार्थ के साथ विहार का निषेध तथा
गोरक्षक-दृष्टान्त। १००३. द्वारगाथा द्वारा मार्ग, शैक्ष, विहार आदि द्वारों
का कथन। १००४-१००८, अगीतार्थ के साथ विहार करने से होने वाले
आत्मसमुत्थ दोषों का विस्तृत वर्णन। १००६-१४. भाव-विहार की परिभाषा और भेद-प्रभेद। १०१५. दो मुनियों के विहार करने में होने वाले दोष। १०१६. ग्लान को एकाकी छोड़ने के दोष। १०१७-२०. एकाकी ग्लान के मरने पर होने वाले दोष
तथा उनका प्रायश्चित्त। १०२१,१०२२. शल्यद्वार का निरूपण। १०२३,१०२४. शिष्य द्वारा सूत्र की निरर्थकता बताना और
आचार्य द्वारा समाधान। १०२५,१०२६. दो का विहार कब? कैसे? १०२७-३०. समान अपराध पर प्रायश्चित्त में भेद क्यों? १०३१. दो साधर्मिकों की परस्पर प्रायश्चित्त विधि। १०३२-३५. अनेक प्रायश्चित्तभाक साधर्मिकों की
आलोचना-विधि और परंपरा। १०३६-४१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु के प्रायश्चित्त-वहन में
मृग का दृष्टान्त एवं उपनय। १०४२-४६. योद्धा एवं वृषभ का दृष्टान्त।
१०४७,१०४८. प्रायश्चित्त वहन न कर सकने वाले मुनि की
चर्या । १०४६.
परिहारी के अशक्त होने पर अनुपरिहारी द्वारा
वैयावृत्त्य का निर्देश। १०५०. समर्थ होने पर सेवा लेने से प्रायश्चित्त। १०५१. तपःशोषित मुनि को रोग से मुक्त करने का
दायित्व। १०५२. ग्लान होने के कारणों का निर्देश। १०५३. गिला की व्याख्या। १०५४-५६. परिहारी का आगमन और नि!हणा (वैयावृत्त्य)
न करने पर प्रायश्चित्त का विधान । १०५७. अशिव से गृहीत-अगृहीत के चार विकल्प। १०५८ अशिवगृहीत मुनि का संघ में प्रवेश होने पर
हानियां। १०५६,१०६०. अशिवगृहीत मुनि का गांव के बाहर या
उपाश्रय में एकान्त स्थान में रहने का विधान। १०६१-६३. अशिवगृहीत मुनि के साथ व्यवहार करने की
सावधानियां। १०६४. व्यवहार के एकार्थक एवं लघु प्रायश्चित्त का
प्रस्थापन। १०६५-७. गुरुक, लघुक एवं लघुस्वक आदि तीन
व्यवहारों के भेद-प्रभेद। १०७१,१०७२. नौवें प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि की वैयावृत्त्य करने
का निषेध, परन्तु राजवेष्टि एवं कर्म-निर्जरा
के लिए करने का आदेश। १०७३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का
स्वरूप। १०७४,१०७५. पारांचित के प्रति आचार्य का कर्तव्य। १०७६.
घोर प्रायश्चित्त से क्षिप्त होने वाले साधु की
वैयावृत्त्य। १०७७८०. क्षिप्तचित्तता के लौकिक एवं लोकोत्तरिक
कारण। १०८१-५.
राग से क्षिप्त होने वाले जितशत्रु राजा के भाई
की कथा। १०८६. तिर्यंच के भय से होने वाली क्षिप्तचित्तता। १०८७. अपमान से होनेवाली क्षिप्तचित्तता एवं उसकी
यतना का निर्देश। १०५-११०५. विभिन्न कारणों से होने वाली क्षिप्तचित्तता के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org