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________________ विषयानुक्रम [ १२१ ६१६,६१७. १८६१६. ६२०. । ६२१. तलना। ६२२. ६२३. ६२४,६२५. ८६१. ६२६. ६२७,६२८. ६२६ ६३०,६३१ ६३२-३४. ६३५. ६३६. कथन की प्रतिज्ञा। ८३५,८३६. पार्श्वस्थ का स्वरूप एवं उसके प्रायश्चित्त की विधि। ८३७४३. उत्सव के बिना अथवा उत्सव में शय्यातरपिंड ग्रहण का प्रायश्चित्त। ८४४-४६. रागद्वेष युक्त आचार्य की दुर्गन्धित तिल से तुलना। ८४७,८४८, प्रशस्ततिल का दृष्टान्त और उपनय। ८४६८५०. पार्श्वस्थ के विविध प्रायश्चित्तों का विधान। परिपूर्ण प्रायश्चित्त से शुद्धि । ५५२-५६. पार्श्वस्थ के निरुक्त तथा भेद-प्रभेद । अभ्याहृतपिंड और नियतपिंड की व्याख्या। ५८. पार्श्वस्थ होकर संविग्नविहार का स्वीकरण। ८५६ आलोचना के लिए तत्पर होना। ८६०. यथाछंद का स्वरूप-कथन। उत्सूत्र एवं यथाछंद का स्वरूप। ८६२-८६८ यथाछंद का स्वरूप-कथन। ८६६ अकल्पिक की व्याख्या। ८७०. संभोज की व्याख्या। ८७१,८७२. यथाच्छंद की प्ररूपणा तथा उसके दोष। ८७३. पार्श्वस्थ एवं यथाछंद के मान्य उत्सव। ८७४,८७५. पार्श्वस्थ तथा यथाछंद के प्रायश्चित्त । कुशील आदि की प्रायश्चित्त विधि। ८७७-८०. कुशील के प्रकार और प्ररूपणा। ८८१. कौतुक आदि का प्रायश्चित्त । ८८२-६७ अवसन की प्ररूपणा और भेद-प्रभेद। ८८८ अवसन्न का स्वरूप एवं संसक्त के प्रकार। ८६,८६०. संक्लिष्ट एवं असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप। ८६१-६३. गण से अपक्रमण और पुनरागमन। ८६४,९०६. भिक्षुक लिंग में देशान्तरगमन विहित तथा अन्यलिंग कब? कैसे? ६०७ निर्गमन एवं अवधावन के एकार्थक। ९०८,६०६. अवधावन के कारण और वेश परित्याग कब? ६१०. लिंग-परित्याग की विधि एवं अक्षभंग का दृष्टान्त। ६११,६१२. शकटाक्ष का दृष्टान्त एवं निगमन। ६१३. मुद्रा एवं चोर का दृष्टान्त । ६१४,६१५. सूत्र से संबंध जोड़ने वाली गाथाएं। अकृत्यस्थान सेवन का विषय। आचार्य आदि दूर होने पर आलोचना की अनिवार्यता। आचार्य, उपाध्याय आदि पांच में से किसी एक के पास आलोचना।। आलोचना बिना सशल्य मरने पर सद्गति दुर्लभ। प्रवृत्ति और परिणाम का समन्वय। आचार्य आदि पंचक न होने पर संघ में क्यों नहीं रहना चाहिए? जहां राजा, वैद्य आदि पंचक न हों वहां वणिक् का रहना व्यर्थ। गुणयुक्त विशाल राज्य के पांच घटक। राजा का लक्षण। युवराज का स्वरूप। महत्तर और अमात्य का लक्षण। स्त्री परवश राजा और पुरोहित का दृष्टान्त। स्त्री के वशवर्ती पुरुषों को धिक्कार। जहां स्त्रियां बलवान् उस ग्राम या नगर का विनाश। स्त्री के वशवर्ती पुरुष का हिनहिनाना और अपर्व में मुडंन। गुप्तचरों के प्रकार। कुमार का स्वरूप। वैद्य का स्वरूप। धनवान् का स्वरूप। नैयतिक का स्वरूप। रूपयक्ष का स्वरूप। आचार्य, उपाध्याय आदि पंचक से हीन गण में रहने का निषेध। आचार्य का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। उपाध्याय का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। प्रवर्तक का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। स्थविर का स्वरूप। गीतार्थ का स्वरूप। राजा आदि पंचक से हीन राज्य की स्थिति। आचार्य आदि पंचक परिहीन गण में आलोचना का अभाव। ६३७, ६३८-४७ ६४८ ६४६ ६५०. ६५१. ६५२. ६५३. ६५४,६५५. ६५६,६५७. ६५८६५६ ६६०,६६१. ६६२. ६६३. ६६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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