SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 730
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट [१३५ बोला- मुझे भी दो। तब वह सहस्रयोधी भयभीत न होता हुआ पिशाच को भी देने लगा और स्वयं भी खाने लगा। राजा ने वृत्तांत को जानने के लिए गांव के बाहर रहने वाले पुरुषों तथा प्रतिचारकों को भेजा। उन्होंने श्मशान में जो देखा, वह यथावत् राजा को और मंत्री को बता दिया। मंत्री ने सोचा, यह वास्तव में ही सहस्रयोधी है। उसे राज्य में रख लिया। एक दूसरा योद्धा भी अपने आपको सहस्रयोधी बताता हुआ राजा के पास आया और स्वयं को वृत्ति देने की प्रार्थना की। राजा ने उसी प्रकार उसकी परीक्षा की। वह श्मशान में गया। ज्योंहि तालपिशाच उसके सामने आया वह भयभीत होकर वहां से भाग गया। लोगों ने राजा को और मंत्री को सारी बात कही। राजा ने उसे सहस्रयोधी मानने से इंकार कर दिया। (गा. ७८४ टी. प. ६३) ४२. आंखों का प्रत्यारोपण एक तपस्वी मुनि एकल विहार-प्रतिमा की साधना कर रहा था। वह प्रतिमा में स्थित होकर सूत्र और अर्थ का परावर्तन करता था। एक दूसरा मुनि अल्पश्रुत था। उसने आचार्य से कहा, मैं भी एकल विहार-प्रतिमा की साधना करना चाहता हूँ। आचार्य बोले, तुम अभी श्रुत से अपर्याप्त हो, अतः इस प्रतिमा की साधना करने के योग्य नहीं हो। आचार्य ने बार-बार उसे समझाया और निषेध किया। वह शिष्य निषेध को न मानकर, उस क्षपक के पास ही प्रतिमा में रि ने सोचा, यह आज्ञा के विपरीत चल रहा है। देवता ने आधी रात के समय भी उसे प्रभात का आभास करा दिया। प्रतिमा को संपन्न कर उस तपस्वी मुनि से बोला—प्रभात हो गया है। प्रतिमा को संपन्न करो। तब देवता ने उसके एक चपेटा मारा। उसकी दोनों आंखें बाहर आ गिरी। तब उस तपस्वी अनगार ने अनुकंपा के वशीभूत होकर सघन कायोत्सर्ग किया। देवता आया। पूछा-तपस्वी ! बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं? तपस्वी ने कहा—'तुमने इस मुनि को क्यों कष्ट दिया? अब इसकी आंखें पूर्ववत् करो।' देवता बोला, इसकी आंखें अब आत्म-प्रदेशों से शून्य हो गई हैं। तपस्वी बोला, कुछ भी करो। देवता ने तब तत्काल मारे गए एडक की आंखें, जो आत्म-प्रदेशों से युक्त थीं, लाकर उस मुनि के लगा दी। (गा. ७६५, ७६६ टी. प. ६६) ४३. अपना-अपना काम एक राजा ने दूसरे राजा के नगर पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजा नगर के भीतर अंतःपुर में था। पटरानी ने राजा से कहा-मैं युद्ध लडूंगी। राजा ने वर्जना की। रानी नहीं मानी। वह राजा का वेश पहन सेना के साथ युद्ध करने निकली और शत्रुसेना से लड़ने लगी। वह सैनिक वेश में थी, इसलिए उसे पहचान पाना कठिन था, परंतु शत्रु राजा ने जान लिया कि यह महिला है। चांडालों को भेजकर उसे पकड़वा दिया। उसकी दुर्दशा कर उसे मार डाला। (गा. ८१२ टी. प. १०१) ४४. देवता और साधु एक मुनि प्रतिमा में स्थित था। उसे प्रतिबोध देने के लिए एक सम्यक्दृष्टि देवता ने स्त्री का रूप बनाया। वह अपने साथ अनेक छोटे-छोटे बच्चों को लेकर वहां मुनि के पास बैठ गयी। कुछ समय बाद बच्चे रोने लगे। उन्होंने मां से कहा- 'मां हमें भोजन दो, भूख लगी है।' मां ने कहा-'अभी भोजन बनाकर देती हूं, रोओ मत ।' उसने दो पत्थरों को रख, उनके बीच आग जलाई और उन पत्थरों पर पानी से भरा पिठर रखा। तीसरे पत्थर के बिना संतुलन नहीं रहा और वह पानी का पिठर लुढ़क गया। अग्नि उस पानी से बुझ गई। उसने तीन बार अग्नि जलाई और तीनों बार वह बुझ गई। तब प्रतिमा-स्थित मुनि बोला-क्या तुम इस विधि से अपने इन बच्चों को भोजन बनाकर खिला सकोगी? तब देवरूप उस स्त्री ने कहा-स्वयं को देखो। तुमने इतने अल्पश्रुत का अध्ययन कर यह प्रतिमा क्यों स्वीकार की है ? क्या तुम इसमें सफल हो सकोगे ? जाओ, अपने गच्छ में शीघ्र चले जाओ। अन्यथा तुम किसी प्रान्त देवता से छले जाओगे। (गा. ८२० टी. प. १०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy