________________
व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
स्थान से दूसरे स्थान पर जाने हेतु बड़े-बड़े पोत तथा विविध प्रकार की नौकाएं काम में लाई जाती थीं। विशेष रूप से चार प्रकार की नौकाओं का उल्लेख मिलता है।'
• समुद्रनौ-जिससे समुद्र पार किया जा सके। • अवयानी-अनुस्रोत में चलने वाली नौका। • उद्यानी- प्रतिस्रोत में चलने वाली नौका। तिर्यग्गामिनी-नदी के पानी को तिरछा काटती हई चलने वाली नौका।
कर्जदार का यदि जहाज डूब जाता और वह स्वयं बच जाता तो उसे ऋण चुकाना अनिवार्य नहीं था। इसे वणिग्न्याय कहा जाता था। वेश्यावृत्ति खूब चलती थी। पांच या दस कौड़ी में वेश्याएं अकृत्य सेवन के लिए तैयार हो जाती थीं। कभी-कभी इस कार्य के विनिमय में वेश्याओं को बिना किनारी वाला कपड़ा भी दिया जाता था।
न्याय के क्षेत्र में रिश्वत चलता था। कार्य के प्रति अनुत्तरदायी व्यक्ति का समाज में कोई स्थान नहीं था। उनको आजीविका के साधन मिलने दुर्लभ थे। तत्कालीन प्रचलित अनेक शिल्प, शिल्पी एवं कर्मकरों का उल्लेख भाष्य में मिलता है। भाष्य में 'कोक्कास' नामक शिल्पी का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। इसका उल्लेख आवश्यकचूर्णि एवं वसुदेवहिंडी में भी मिलता है। वह यंत्रमय कबूतर एवं हंस बनाकर उनसे शालि चुगवा लेता था।
विभिन्न प्रकार की मुद्राओं के उल्लेख से भी उस समय की अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का ज्ञान होता है। भाष्य में कार्षापण, काकणी, उंडि, रूप्यक, माषक, दीनार आदि मुद्राओं का उल्लेख मिलता है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक तथ्य
समय जानने के लिए जल-नालिका या बालू-नालिका का प्रयोग किया जाता था। साधु लोग सूत्र एवं अर्थ परावर्तन के परिमाण के आधार पर कालज्ञान कर लेते थे। उनका सूत्र-परावर्तन इतना लयबद्ध होता कि सूर्य के मेघाच्छन्न होने पर भी वे कालज्ञान कर लेते थे।
कबूतर का नए घर पर बैठना अपशकुन माना जाता था। ज्योतिषी से पूछकर उस अपशकुन का निवारण भी किया जाता था। प्रयोजनवश बाहर जाते समय वस्त्र आदि की स्खलना को अपशकुन माना जाता था। अपशकुन आदि होने पर आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण पंच परमेष्ठी मंत्र अथवा दो श्लोकों के चिन्तन जितने समय के कायोत्सर्ग का विधान है। दूसरी बार अपशकुन होने पर सोलह श्वासोच्छ्वास तथा तीसरी बार प्रतिघात या अपशकुन होने पर बत्तीस श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का उल्लेख है। चौथी बार प्रतिघात या अपशकुन होने पर वहां से प्रस्थान न किया जाए अथवा कोई अन्य प्रयोजन प्रारम्भ न किया जाए। विविध लौकिक मान्यताओं का उल्लेख भी भाष्य में मिलता है, जैसे नख को दांत से काटने पर कलह होता है आदि।
१. व्यभा.११० टी.प. ३६। २. व्यभा. १२०० टी. प. ५१।
व्यभा. १६२२। ४. व्यभा. १३ टी. प. । ५. व्यभा- २३२३-२५॥ ६. देखें परि. १६ एवं २०॥ ७. आवचू.भाग १ पृ. ५४१, वसुदेवहिंडी भा. १ पृ. २। ८ व्यभा. २३६३ टी. प. २०॥ ६. देखें-परिशिष्ट २०॥ १०. व्यभा.४०४७टी.प.३३। ११. व्यभा. ७.३ टी. प. ६३: सूत्रार्थचिन्तनप्रमाणेन कालं दिनरात्रिगतागतरूपं जानाति; व्यभा.७८६-७८८ । १२. व्यभा.२८८१ १३. व्यभा. ११७११८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org