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• ' जेण य ववहरइ मुणी जं पि य बवहरइ सो वि ववहारो।" अर्थात् जिसके द्वारा मुनि आगम आदि व्यवहार का प्रयोग करता है, वह व्यवहार है अथवा जिस व्यवहर्त्तव्य का मुनि प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है।
● 'विविधो वा अवहारः व्यवहारः' अर्थात् विविध प्रकार से निश्चय करना व्यवहार है।
भाष्य में व्यवहार के चार एकार्थक प्राप्त हैं- १. व्यवहार २ आलोचना ३. प्रायश्चित्त ४. शोधि । यद्यपि इनको एकार्थक नहीं माना जा सकता किन्तु व्यवहार विशोधि का कारण है और ये चारों शब्द विशोधि की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में व्यवहार शब्द आलोचना, शोधि एवं प्रायश्चित्त- इन तीनों अर्थों में प्रयुक्त है।
ग्रंथकार ने भाव व्यवहार के ६ एकार्थकों का उल्लेख किया है- १. सूत्र २. अर्थ ३. जीत ४. कल्प ५. मार्ग ६. न्याय ७. ईप्सितव्य ८ आचरित ६. व्यवहार ।
भाष्यकार ने स्वयं यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि ये एकार्थक जीतव्यवहार के सूचक हैं फिर इसके लिए भाव व्यवहार के एकार्थकों का उल्लेख क्यों किया? प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र शब्द से आगम और श्रुत व्यवहार गृही हैं। अर्थ शब्द से आज्ञा और धारणा व्यवहार का ग्रहण है। तथा शेष शब्द जीतव्यवहार के द्योतक हैं।
भाष्यकार ने संक्षेप में निक्षेप पद्धति द्वारा व्यवहार की व्याख्या की है किंतु टीकाकार ने आगमतः- नोआगमतः द्रव्य एवं भाव व्यवहार की विस्तृत चर्चा की है।
द्रव्य लौकिक व्यवहार में टीकाकार ने आनंदपुर का उदाहरण दिया है। आनंदपुर में खड्ग के द्वारा व्यक्ति को उदीर्ण करने पर अस्सी हजार रूप्यक का तथा मारने पर भी इतने ही रूप्यकों का दंड होता था । प्रहार करने पर यदि व्यक्ति नहीं मरता तो केवल पांच रूपये का दंड तथा उत्कृष्ट रूप से कलह में प्रवृत्त होने पर अर्धत्रयोदश रुपयों का दंड दिया जाता था।
लोकोत्तर द्रव्य व्यवहार में पीत वस्त्रधारी पार्श्वस्थ साधुओं का उल्लेख है जो जिनेश्वर की आज्ञा का पालन न करके स्वच्छंद विहार करते थे तथा परस्पर अशन-पान आदि के आदान-प्रदान रूप व्यवहार भी करते थे । भाव व्यवहार में आगम, श्रुत आदि पांच व्यवहारों का समावेश है।
व्यवहार दो प्रकार का होता है - १. विधि व्यवहार २. अविधि व्यवहार । व्यवहार सूत्र आध्यात्मिक ग्रंथ होने से यहां विधि व्यवहार का प्रकरण है अविधि व्यवहार मोक्षमार्ग का विरोधी है। "
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निर्ग्रन्थों एवं संयतों के लिए दो प्रकार के व्यवहारों का उल्लेख है - आभवद् व्यवहार एवं प्रायश्चित्त व्यवहार । सचित्तादि वस्तु को लेकर जो व्यवहार होता है, वह आभवद् व्यवहार है तथा प्रतिसेवना का आचरण करने पर अपराधी के प्रति जो व्यवहार होता है, वह प्रायश्चित्त व्यवहार है।
आभवद् व्यवहार
आभवद् व्यवहार के पांच प्रकार हैं - १. क्षेत्र २. श्रुत ३ के भेद इस प्रकार मिलते हैं-- १. सचित्त २. अचित ३. मिश्र ४
प्रायश्चित्त व्यवहार के भी पांच प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, काल और भाव ।
१. व्यभा• ३८८ ।
क्षेत्र आभवद् व्यवहार
आठ ऋतुमास तया चार वर्षावास के लिए क्षेत्र की मार्गणा करना क्षेत्र आभवद् व्यवहार है। क्षेत्र की मार्गणा करने के लिए
बृचू अप्रकाशित ।
२.
३. व्यभा. १०६४
४. व्यभाषी. टी. प ७ द्वावप्यर्थात्मकत्वादर्थग्रहणेन सूचिती ।
व्यवहार भाष्य
५. व्यभा. ६ टी. प ६, तुलना बृभा. ५१०४, जीभा २३७३ ।
६. व्यभा. ६ टी. प ६ ।
७. व्यभा. ५।
८
पंकभा. २३६३ ।
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सुख-दुःख ४ मार्ग ५. विनय । पंचकल्पभाष्य में आभवद् व्यवहार क्षेत्र-निष्पन्न ५. काल निष्पन्न ।
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