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परिशिष्ट-८
कथाएँ १. माया से शुद्धि नहीं
एक गांव में एक ब्राह्मण रहता था। वह कामुक था। एक बार उसने अपनी सुन्दर पुत्र-वधू या चंडालिन में आसक्त हो उसके साथ संभोग कर लिया। उसके मन में प्रायश्चित्त का भाव जागा | वह प्रायश्चित्त के निमित्त एक चतुर्वेद के ज्ञाता ब्राह्मण के पास गया और यथार्थ को छुपाते हुए बोला –विप्रवर ! आज स्वप्न में मैं अपनी पुत्रवधू या चंडालिन के साथ कुकृत्य कर बैठा। आप मुझे प्रायश्चित्त दें। यह मायापूर्वक किया जाने वाला प्रायश्चित्त है। (गा. १८ टी. प. १०) २. कुम्हार का मिच्छा मि दुक्कडं
एक आचार्य अपनी शिष्य मंडली के साथ जनपद विहार करते हुए एक गांव में आए। वे वहां एक कुंभकारशाला में ठहरे। आचार्य ने अपने शिष्यों से कहा-'यह कुंभकारशाला है। मिट्टी के अनेक प्रकार के भांड यहां रखे हुए हैं। सबको सतर्क रहना है। इधर-उधर आते-जाते भांड फूट न जाएं, पूरा ध्यान रखना है।' एक शिष्य प्रमादी था, कुतूहली था। वह ककर से एक भांड फोड़ता और तत्काल 'मिच्छा मि दुक्कड' का उच्चारण करता। वह बार-बार ऐसा करने दो-चार दिन बीते। कुंभकार ने शिष्य को समझाया। वह नहीं समझा, तब कुंभकार ने एक दिन उस शिष्य का कान खींचकर उसके सिर पर 'ठोला' मारा और बोला 'मिच्छा मि दुक्कडं'। दो-चार बार ऐसा करने पर शिष्य बोला-'अरे मुझ निरपराध को क्यों पीट रहे हो ?' कुंभकार बोला-'तुमने मेरे भांड क्यों फोड़े ?' शिष्य ने कहा-'भांड फोड़कर मैंने 'मिच्छा मि दुक्कड' कहकर प्रायश्चित्त कर लिया था।' कुंभकार ने कहा—'मैंने भी 'ठोला' मारकर यह प्रायश्चित्त कर लिया है।' अतः इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। यह कुंभकार और शिष्य का प्रायश्चित्तस्वरूप किया हुआ अव्यावहारिक मिच्छा मि दुक्कडं है।
(गा. २५ टी. प.१३) ३. ऋजुता का परिणाम
दो गोतार्थ मुनि साथ-साथ विहरण कर रहे थे। एक बार सचित्त वस्तु के विषय में दोनों में चिन्तन चला। एक ने कहा—मुझे ऐसा प्रतीत होता है। दूसरे ने कहा-नहीं, मुझे ऐसा प्रतीत होता है। दोनों किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। निकट में कोई तीसरा गीतार्थ मुनि नहीं था जिसके पास जाकर समाधान पाया जा सकता हो। तब एक गीतार्थ मुनि ने दसरे से कहा-'आर्य ! तम ही मेरे लिए प्रमाण हो। तम ही निर्णय दो। इस प्रकार निर्णायकरूप में नियुक्त होने पर उसने सोचा -मैं तीर्थंकर का प्रतिनिधि तथा संघ का आचार्य हूं। मैं संघ की मर्यादा का अतिक्रमण कैसे करूँ ? उसने कहा—आर्य! तुमने जो कहा, वही सही है। मैंने जो सोचा था, वह सही नहीं है। यह है ऋजुता का परिणाम ।
(गा. २६, ३० टी. प.१३, १४) ४. स्वाध्याय में काल और अकाल का विवेक
___एक मुनि कालिक श्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यकदृष्टि देवता ने यह जाना। उसने सोचा-यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई नीच जाति का देवता इसको ठग न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने का स्वांग रचा। 'छाछ लो, छाछ लो।' यह कहता हुआ वह उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता-जाता रहा ।. मुनि ने मन ही मन-यह छाछ बेचनेवाला मेरे स्वाध्याय में बाधा डाल रहा है—यह सोचकर उससे कहा-अरे ! अज्ञानी ! क्या यह छाछ बेचने का समय है ? समय की ओर ध्यान दो। तब उसने कह्म-मुनिवर्य ! क्या यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय-काल है?
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