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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
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मकान बनाने से पूर्व उसका रूप तैयार किया जाता था।' संघ को शीतगृह की उपमा दी गई है। इससे स्पष्ट है उस समय वातानुकूलित मकान भी बनाए जाते थे। मकान बनाने में पत्थर एवं लोहे की ईंटे काम में लाई जाती थीं। चक्रवर्ती के भवन १०८ हाथ, वासुदेव के ६४ हाथ, मांडलिक के ३२ हाथ तथा साधारण लोगों के भवन १२ हाथ ऊंचे
होते थे।
आठ मंजिल के ऊंचे प्रासादों का उल्लेख मिलता है। मकानों में तलघर भी बनाए जाते थे । राजभवन एवं सेठ लोगों के मकानों में मणिमुक्ता जड़े रहते थे।
दासप्रथा
महावीर द्वारा दासप्रथा का विरोध किए जाने पर भी भाष्यकार के समय तक इस प्रथा का समूल नाश नहीं हुआ था । निशीथ भाष्य में अनेक प्रकार के दासों का उल्लेख मिलता है। जो गर्भ से ही दास बना लिए जाते वे 'ओगालित' कहलाते । खरीदकर लाए हुए को क्रीतदास तथा ऋण से मुक्त न होने के कारण बने दास को 'अणए' कहा जाता दुर्भिक्ष के कारण भी कुछ लोग दासवृत्ति स्वीकार कर लेते। राजा का अपराध होने पर भी दण्ड के कारण व्यक्ति दास बना लिए जाते। म्लेच्छ या चोरों द्वारा अपहृत व्यक्ति कालान्तर में दास के रूप में बेच दिये जाते । कोई अपने बच्चे को मित्र के घर छोड़कर स्वयं दीक्षित हो जाता, मित्र के कालगत होने पर उस घर में आदर न मिलने पर वह दासवृत्ति स्वीकार कर लेता । "
किसी को दासत्व से मुक्त कराना कठिन कार्य था । भाष्यकार ने साधु द्वारा अपने पुत्र को दासत्व से मुक्त कराने के अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं। कभी-कभी दास या दासी को किसी कार्य से प्रसन्न होकर स्वामी उसका मस्तक प्रक्षालित कर देता, जिससे उसे दासता से मुक्ति मिल जाती। " दास को दीक्षित करने का निषेध था पर संथारे के इच्छुक दास को दीक्षित करने का विधान भी था ।
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पर्यवलोकन
व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रंथ है। अनेक विषयों का इसमें समावेश है। टीकाकार मलयगिरि ने इस पर टीका लिखकर इसको और अधिक प्रशस्त बना दिया है। यद्यपि इस ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य प्रायश्चित्त देकर साधक की विशोधि करना है, परन्तु इस प्रतिपाद्य के परिपार्श्व में ग्रंथकार ने और भी अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भाष्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति पर विशद प्रकाश डालता है। ग्रंथकार ने जैन परम्परागत विधि-विधानों का अविकल संकलन कर उनकी पारंपरिकता को अविच्छिन्न रखा है।
भाष्य में अनेक मत-मतान्तरों का उल्लेख है। पांचों व्यवहारों के संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण मंतव्यों का उल्लेख भाष्य एवं टीका में प्राप्त है। हमने भाष्यगत अनेक विषयों को छुआ है फिर भी अनेक विषय अछूते ही रह गए हैं। इसमें वर्णित चतुर्भंगियों पर विशद प्रकाश डाला जा सकता है और उनके माध्यम से अनेक नए-नए तथ्य सामने आ सकते हैं दशवें उद्देशक में वर्णित चतुर्भंगियां मानव मन का सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं ।
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१. व्यभा. ४१७६ ।
२. व्यभा. १६८१ ।
३. व्यभा. २२८३ ।
४. व्यभा. ३७४८, ३७४६ ।
५.
व्यभा. ३७४७ ।
६. निभा. ११७४ ॥
७. निभा. ३६७६, व्यभा ११७४ ।
て
व्यभा. ११८०, ११८१ ।
६. व्यभा. ११८२-६२ ।
१०. व्यभा. २६५४ टी. प. ३८ ।
११. व्यभा. ११७२ ।
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