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( २० ) स्तुति कर महाराजा ने परमानंद पाया । इस प्रकार आगे बढती हुई सवारी अपने पूर्व निर्धारित स्थान-रामा दीपचन्द्र देव के राजमहल में पहुँची।
राजमहल में अपने आदरणीय अतिथि के सत्कार में बड़ी सुन्दर सजावट की हुई थी। अद्भुत कला-कौशल से निर्माण किये हुए गलीचे बिछे हुए थे। उन पर मखमली गद्द तकिये लगे हुए थे। पास ही सभा भवन में रत्न जटित स्वर्ण-सिंहासन महाराजा के लिये लगाया गया था। अधिकारियों के लिये भी योग्य ग्रासन लगे हुए थे। सवारी से उतर कर महाराजा प्रतापसिंह राजा दीपचंद्रदेव के द्वारा सत्कारित सन्मानित होते हुए बड़े ठाठ के साथ सभा-भवन में रत्न सिंहासन पर आकर विराजमान होगये । यद्यपि महाराज सिंहासन पर विराजमान थे पर उनका मन मधुकर उस भाग्यवती राज कन्या के मुख-कमल का ध्यान कर रहा था।
_ अवसर पाकर चित्तज्ञ कलावान् ने राजा दीपचंद्रदेव से कहा कि आज यह कितना सुन्दर समय है। महाराजा प्रतापसिंह के प्रताप से आज के सूर्य का आलोक संबंध कितना सुहावना प्रतीत होता है । चिनज्ञ की इस बात में अपना मानसिक संकेत पाकर राजा दीपचन्द्र ने महाराज