________________
( १८ )
महाराजा बहुत प्रसन्न हुए, और उन्होंने इष्टं वैद्योपदिष्टम् के न्याय से उनका अतिथि होना स्वीकार कर लिया ।
राजा ने बड़ी सज धज के साथ महाराज को नगर में प्रवेश कराया । दर्शनार्थी प्रजा - जनों का समुद्र उमड़ पड़ा । सारे शहर में आनन्द की लहर दौड़ गई । सवारी देखने की लालसा से ललित ललनाओं ने राजमार्ग की सारी ऊँची नीची अट्टालिकाओं को, झरोखों को अलंकृत कर दिया । नाना प्रकार के मंगल बाजे बज रहे थे ।
महाराजा प्रतापसिंह कलाविज्ञों के साथ लक्षण संपन्न सफेद घोड़ों से जुते हुए सुवर्ण - सुन्दर रथ में बैठे हुए, सजे हुए मकानों, मन्दिरों, और बाजारों की शोभा को निहारते हुए जा रहे थे । चारों ओर से जयध्वनि उठ रही थी । नागरिक कन्याएँ केसरिये रंगे हुए अक्षत और सुगंधी फूलों को महाराज पर बरसा रही थीं । अकस्मात् महाराजा की दृष्टि एक उत्तुंग राजमहल के झरोखे से टकरा गई । उनने वहां एक अत्यन्त रूपवती कमलमुखी कन्या को देखा । उनका मन वहीं उलझ गया । महाराजा क्षण भर के लिये समाधिस्थ योगी की तरह निस्संज्ञ होगये ।
इधर चित्त के भावों को जानने वाले कलावान् ने