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महाराजा प्रतापसिंह का शिबिर दीपशिखा से थोर्डी दूर पर लग गया। प्रकृति अपने माननीय अतिथि के स्वागत में पचियों के मंगल गान सुना रही थी, मंद २ हवा के चँवर दुला रही थी, सूर्य की सुनहरी किरणों से मिल मिलाते हुए वृक्ष की फैली हुई छाया छत्र का काम कर रही थी। पड़ोस में ही पद्म सरोवर निर्मल जलकमल से महाराजा का पूजोपचार कर रहा था। ऐसे सुखमय समय में भोजनादि कार्यों से निवृत्त होकर महाराजा प्रतापसिंह की आभ्यन्तर सभा जुड़ी हुई थी। अधिकारी लोग यथा स्थान बैठे हुए थे । चारों कलाविज्ञ अपनी २ कलाओं के सम्बन्ध में चमत्कारपूर्ण घटनाओं को सुना रहे थे, इतने में किसी पक्षी के बोलने की आवाज