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दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार हेत्वाभास शब्द का अर्थ होता है 'दुष्टहेतु' । दोषों से युक्त हेतु ही दुष्ट हेतु है । फलतः कथित दोष ही दुष्ट हेतुओं को सद्धेतुओं से पृथक करते अतः दुष्टहेतु रूप हेत्वाभासों को समझने के लिए हेतु के दोषों को समझना पहिले आवश्यक है । दोषों को समझ लेने के बाद ' इस दोष से युक्त ही दुष्ट हेतु है' इस प्रकार दुष्टहेतुओं को समझना सुलभ हो जाता है । इसी दृष्टि से ' हेतोरभासा हेत्वाभासाः ' इस व्युत्पत्ति से लभ्य हेतु के दोषों का ही लक्षण आकर ग्रन्थों में किया गया है ।
हेतुओं के ये दोष दो प्रकार से अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं। एक सीधे ही अनुमिति को रोकते हैं । जैसे कि सत्प्रतिपक्ष और बाघ । कुछ हेत्वाभास अनुमिति के कारण व्याप्ति या पक्षधर्मता का विघटन करते हुए अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं, जैसे कि व्यभिचार एवं स्वरूपासिद्धि | कुछ हेत्वाभास ऐसे भी हैं जो उक्त दोनों ही प्रकार से अनुमिति का प्रतिरोध करते हैं, जैसे कि आश्रयासिद्धि एवं साध्याप्रसिद्धि ।
हेत्वाभास की संख्याओं में और नामों में भी वैशेषिकदर्शन के सूत्र में इसके तीन ही भेद कहे गये हैं, सतनाम को जोड़कर निम्नलिखित चार ( ३ ) सन्दिग्ध और ( ४ ) अनध्यवसित । सत्प्रतिपक्ष ( ४ ) असिद्ध और ( ५ ) बाध मीमांसकों ने महर्षि कणाद की रीति से इसके
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इसी प्रकार जिसमें द्वेष अपेक्षा न हो वही 'दुःख' है ।
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मतभेद देखा जाता है । जैसे कि किन्तु भाष्यकार ने उनमें अनध्यभेद किया है । ( १ ) असिद्ध ( २ ) विरुद्ध न्यायमत में ( १ ) सव्यभिचार (२) विरुद्ध (३) ये पाँच हेत्वाभास के मुख्य भेद माने गये हैं । तीन ही भेद किये हैं ।
हेतु की तरह हेत्वा
लोगों को उठाना
दोषों का प्रदर्शन
इस प्रकार ज्ञान के परिशोधन के अभिप्राय से आचार्यों ने भासों को भी समझाने में बहुत श्रम किया है । जिसका लाभ हम चाहिए। एक पक्ष के स्थापन के लिए विरुद्ध पक्ष के हेतुओं में आवश्यक है । जो आज भी न्यायालयों के व्यवस्थाओं को सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर अवगत हो सकता है । प्राचीन समय के धर्मशास्त्रानुयायी व्यवस्थाओं को देखने से तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है। जिसके लिए भारतीय व्यवहार के द्वैतपरिशिष्टादि निबन्ध ग्रन्थों के व्यवहारप्रकरणों को देखना उपयोगी होगा ।
सुख
जिस इच्छा
लिए और किसी इच्छा की आवश्यकता न हो उसे 'सुख' कहते हैं। सुख की इच्छा से ही चन्दनवनितादि सभी विषयों की इच्छा होती है । अर्थात् चन्दनादि विषय चूँकि सुख के कारण हैं, इसीलिए उनकी इच्छा होती है । सुख की इच्छा के लिए किसी और इच्छा की आवश्यकता नहीं होती । अतः किसी और इच्छा के अनधीन इच्छा का विषय ही 'सुख' है ।
दुःख
उत्पन्न होने के लिए मध्य में दूसरे विषयों के द्वेष की मुख्यतः जीवों को दुःखों से ही द्वेष है । फिर 'ये मुझे न
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