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है, क्योंकि छाया या अन्धकार में गति रूप हेतु नहीं है । इससे ऐसा भान होता है कि वात्स्यायनादि प्राचीन नैयायिकों ने केवल स्वरूपासिद्ध को ही असिद्ध मानते थे । असिद्ध के और भेद बाद में किये गये ।
हेतु में उसके विशेषणीभूत धर्म ( हेतुतावच्छेदक ) के अभाव और साध्य में साध्यतावच्छेदक के अभाव को व्याप्यत्वासिद्धि दोष कहते हैं । इस दोष से युक्त हेतु व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है । 'पर्वतो वह्निमान् काञ्चनमयधूमात्' इस अनुमान के हेतु - धूम में काञ्चनमयत्व रूप हेतुतावच्छेदक नहीं है । अतः वह ( हेत्वप्रसिद्धि रूप ) व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास है । एवं पर्वतः काञ्चनमयवह्निमान् धूमात्' इस अनुमान के साध्य वह्नि में काञ्चनमयत्व रूप साध्यतावच्छेदक नहीं है, अतः यह हेतु ( साध्या प्रसिद्ध रूप ) ब्याप्यत्वासिद्ध है । इसी प्रकार व्याप्ति में अनुपयोगी ( व्यर्थ ) विशेषणादि से युक्त हेतु भी व्याप्यत्वासिद्ध हेत्वाभास ही है, जैसे कि 'पर्वतो वह्निमान् नीलधूमात्' इत्यादि स्थलों का नीलधूम रूप हेतु व्याप्यत्वासिद्ध है, क्योंकि धूम का नील विशेषण व्यर्थ है । यह रहना चाहिए कि दोष जहाँ कहीं भी रहे, किन्तु दुष्टता हेतु में ही आवेगी ।
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पाँचवें हेत्वाभास को महर्षि ने 'कालातीत' की संज्ञा दी है, और इसके परिचय के लिए " कालात्ययापदिष्टः कालातीतः” इस सूत्र का निर्माण किया है ।
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पक्ष में पूर्ण रूप से निश्चित साध्य के लिए अनुमान की प्रवृत्ति नहीं होती है एवं पक्ष में जिस साध्य का अभाव ही पूर्णरूप से निश्चित है, उस साध्य के लिए भी न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । किन्तु जो साध्य पक्ष में सन्दिग्ध रहता है, उस साध्य को उस पक्ष में निश्चित रूप से समझाने के लिए ही न्याय का प्रयोग होता है । हेतुवाक्य का प्रयोग भी न्याय के ही अन्तर्गत है ।
जिस समय जिस पक्ष में जिस साध्य का सन्देह वर्त्तमान है, वही समय हेतुप्रयोग के लिए उपयुक्त है । यदि उस समय उस पक्ष में उप साध्य का अभाव दूसरे किसी बलवत् प्रमाण से निश्चित है, तो उस समय उस पक्ष में साध्य का सन्देह नहीं रह सकता। साध्यसन्देह का समय पक्ष में साध्याभाव निश्चय के पूर्व ही था, जो 'अतीत ' हो चुका है । अतः जिस पक्ष में जिस साध्य का अभाव किसी बलवत् प्रमाण से निश्चित है, उस पक्ष में उस साध्य की अनुमिति के लिए अगर कोई हेतु का प्रयोग करे तो वह हेतु व्याप्ति-पक्षधर्मता प्रभृति से युक्त होने पर भी ' कालातीत' नाम का हेत्वाभास होगा । उससे प्रमा अनुमिति नहीं हो सकती । इसका अतीतकाल' नाम भी प्राचीन ग्रन्थों में है ।
नवनैयायिक इस हेत्वाभास को ही 'बाधित' और उसके विशेषणीभूत दोष को 'बाध' कहते हैं । पक्ष में बलवत् प्रमाण के द्वारा निश्चित साध्य के अभाव का निश्चित रहना ही बाध है । फलतः पक्ष में साध्याभाव का रहना ही बाध दोष है । द्वारा इस बाध दोष से युक्त हेतु ही 'बाधित' नाम का
जिस किसी भी सम्बन्ध के हेत्वाभास है ।
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