________________
५७० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६)
(२५) ईर्यापथिक क्रिया-कषायवृत्ति से रहित होकर की जाने वाली क्रिया। . .
यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र, स्थानांगसूत्र आदि में दोनों प्रकार के आम्नवों की दृष्टि से २५ क्रियाओं का उल्लेख किया है, किन्तु साम्परायिक आस्रव का आधार पूर्वोक्त २४ क्रियाएँ ही होती हैं, पच्चीसवीं ईर्यापथिक क्रिया नहीं। यहाँ पूर्वोक्त २४ क्रियाओं का निर्देश साम्परायिक कर्मानव-बाहुल्य की दृष्टि से किया गया है।'
यद्यपि अव्रत, इन्द्रिय-प्रवृत्ति एवं पूर्वोक्त चौबीस क्रियाओं की बन्धकारणता रागद्वेष-कषाय पर ही निर्भर है; तथापि कषाय से पृथक् अव्रत आदि का आस्रव एवं बन्ध के कारण रूप में इसलिए निर्देश किया गया है कि संवर (नूतन कर्मआम्नवनिरोध) के इच्छुक साधक इस ओर ध्यान दे सकें कि कौन-कौन-सी प्रवृत्ति व्यवहार में कषायजन्य दृष्टिगोचर होती है। सूत्रकृतांगोक्त आम्रवरूप तेरह क्रियाएँ और उनका लक्षण
सूत्रकृतांग सूत्र में भी आसवरूप तेरह क्रियाएँ बताई गई हैं- .
(१) अर्थ क्रिया-अपना स्वार्थ सिद्ध करने या भौतिक लाभ के लिए कोई क्रिया करना, जिससे दूसरों का अहित हो।
(२) अनर्थ क्रिया-बिना किसी उद्देश्य या प्रयोजन के निरर्थक प्रवृत्ति करना। जैसे-व्यर्थ ही किसी को मारना-पीटना, सताना।
(३) हिंसा क्रिया-अमुक व्यक्ति या प्राणी ने मुझे और मेरे प्रियजनों को कष्ट दिया है, या देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना। जैसे-कई लोग बिच्छू या सांप को देखते ही मार डालते हैं।
(४) अकस्मात् क्रिया-जल्दबाजी में, हठात् अनजाने हो जाने वाला पापकर्म। जैसे-घास काटते-काटते अनजाने में अनाज के पौधे को काट देना।
(५) दृष्टि-विपर्यास क्रिया-दृष्टिभ्रम या बुद्धिभ्रमवश होने वाला पापकर्म। जैसेचोर आदि के भ्रमवश सामान्य निर्दोष व्यक्ति को दण्ड देना या पीड़ित करना, मार डालना। जैसे-दशरथ राजा द्वारा हरिण की भ्रान्ति से निरपराध श्रवण कुमार का किया गया वध। १. (क) देखें- तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) में पच्चीस क्रियाओं का अर्थ, पृ. १५१,
१५२ (ख) देखें-जैनकर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. ५९, ६० (ग) स्थानांगसूत्र स्थान ५, उ. २ सूत्र ११९, १२१, १२२ (घ) देखें-सर्वार्थसिद्धि ६/५/३२१-३२३/११ में पच्चीस क्रियाएँ और उनके अर्थ
(ङ) देखें-राजवार्तिक ६/५/७-११/५०९-५१० में पच्चीस क्रियाएँ। २. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. १५२-१५३
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org