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९४८ ' कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
प्राणी की मृत्यु हो जाती है। भारतीय मनीषियों ने प्राण को चेतना को क्रियाशील, शक्ति सम्पन्न रखने वाला माना। जीव को प्राणी इसीलिए कहा जाता है कि उसकी जीवन प्रक्रिया प्राणशक्ति के सहारे संचालित होती है। शरीर में प्राण की कमी होते. ही प्राणान्त की स्थिति सामने आ खड़ी होती है।
इंग्लैण्ड के डॉ. किलनर ने एक मरणासन्न रोगी की जांच करते हुए देखा कि उनकी दुर्बीन (माईक्रॉसकोप) के शीशे पर एक बिचित्र प्रकार के रंगीन प्रकाशकण जम गए हैं, जो पहले कभी नहीं दिखाई दिये थे। दूसरे दिन उक्त रोगी के कपड़े उतरवाकर देखा तो वही प्रकाश अम्ल लहरों के रूप में माइक्रॉसकोप के शीशे के सामने उड़ रहा है। और धीरे-धीरे वह (प्राण-विद्युत का) प्रकाश ज्यों-ज्यों मन्द पड़ता जाता है; त्यों-त्यों उस रोगी के शरीर और नाड़ी की गति में मन्दता आती जा रही है। थोड़ी देर बाद एकाएक.. वह प्राणविद्युत् का प्रकाशपुंज बिलकुल लुप्त हो गया। फिर उन्होंने रोगी की नाड़ी पर हाथ रखा तो मालूम हुआ कि नाड़ी की गति बंद हो गई है। अर्थात् - रोगी की मृत्यु हो गई.
हैं।
निष्कर्ष यह है कि प्राणी को जीवित रहने के लिए प्राणतत्त्व अत्यन्त आवश्यक है। प्राण और जीवन प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। इस दृष्टि से प्राणशब्द का फलितार्थ चैतन्य शक्ति होता है।'
कहा भी है-जैसे मंत्र की प्राणशक्ति को जब तक जाग्रत नहीं कर लिया जाता, तब तक सैकड़ों पुरश्चरण करने पर भी मंत्रशक्ति से अभीष्ट लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, वैसे ही प्राण के बिना शरीर भी समस्त कार्यों को करने में समर्थ नहीं हो सकता।
इसीलिए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-प्राण ही सच्चे माने में जीवन को स्थिर रखने वाला अमृत है।
प्राणशक्ति की हानि - वृद्धि के परिणाम
यह प्राण तत्त्व या जीवन तत्त्व जब कम पड़ता है तो प्राणी हर प्रकार से लड़खड़ाने लगता है। और जब वह समुचित मात्रा में रहता हैं तो समस्त क्रियाकलाप ठीक तरह चलते हैं। जब वह वृद्धि पाता है तो उस अभिवृद्धि को बलिष्ठता, सामर्थ्य, सतर्कता, क्षमता, तेजस्विता, मनस्विता एवं प्रतिभा आदि के रूप में देखा जा सकता है। अतः प्राणवान् का फलितार्थ केवल जीवित रहना ही नहीं अपितु साहसिकता एवं
१. वही, मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ३१
२.
(क) अमृतमसौ वै प्राणः ।
(ख) विना प्राणं यथा देहः सर्वकर्मसु न क्षमः ।
विना प्राणं तथा मंत्रः पुरश्चर्या शतैरपि ॥ अखण्ड ज्योति, अप्रैल ७७ से उद्धृत
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- शतपथ ब्राह्मण
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