Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 509
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मबुद्ध से १०२५ बाह्य संघर्ष का प्रमुख कारण : मिथ्यात्ववृत्ति बाह्य संघर्ष का सबसे बड़ा कारण है- मिथ्यात्ववृत्ति। जब तक व्यक्ति स्वयं (आत्मा) को भलीभांति नहीं जानता-पहचानता, तब तक अज्ञानदशा के कारण बाह्य पदार्थों या प्राणियों से संघर्ष करता है, निरन्तर संघर्ष के मूड में रहता है। इसी प्रकार जब तक व्यक्ति तत्त्व-सत्य के दर्शन नहीं कर लेता, सत्य के प्रति दृढ़ आस्थावान् नहीं होता, तब तक वाद-विवाद, निन्दा, पर-परिवाद, बाह्य जय-पराजय, अथवा वाचिक - कायिक संघर्ष के रूप में लड़ता रहता है। तत्त्व या सत्य का अज्ञान और अश्रद्धा की वृत्ति बाह्य युद्धों, या संघर्षो को जन्म देती है। बाह्य-संघर्ष का द्वितीय कारण : अविरति की वृत्ति बाह्य संघर्ष का दूसरा कारण है-अविरति । जब तक पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति, अथवा बाह्य पदार्थों के प्रति प्रियता- अप्रियता, अथवा रति- अरति की भावना बनी रहती है, तब तक मनोज्ञ को पाने, संरक्षित करने, उपभोग करने आदि की लालसा - ललक उठती रहती है। उसके लिए संघर्ष कराती रहती है। इसलिए विषयों और बाह्य पदार्थों के प्रति रति की वृत्ति त्याग, व्रताचरण, नियमपालन, संयमपालन आदि के रूप में विरति नहीं होने देती। बाह्य संघर्ष का तृतीय कारण: प्रमादवृत्ति बाह्य संघर्ष का तीसरा कारण है-प्रमादवृत्ति । प्रमाद के कारण मनुष्य तत्त्व को जानता समझता हुआ भी उसे क्रियान्वित करने में हिचकिचाता है, टालमटूल करता है, असावधान (गाफिल ) रहता है, जिसके कारण कषाय और राग द्वेषादि विकार शीघ्र आत्मा पर आक्रमण कर बैठते हैं। प्रमादवृत्ति के कारण मनुष्य सुखशील, सुखसुविधावादी, आचारशिथिल, कष्टों के प्रति असहिष्णु तथा परीषहों से आक्रान्त हो जाता है। इसी प्रसाद के कारण अध्यात्मसंवर का साधक संवर के स्थान में आम्रवों को आमंत्रित कर लेता है, गफलत के कारण वह आनंव के स्थान में संवर को परिणत नहीं कर पाता। कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति जागरूक नहीं रह पाता। समिति, गुप्ति, महाव्रत, संयम, नियम, प्रत्याख्यान आदि के विषय में लापरवाही का परिणाम होता है- असंयम, सुखशीलता और अजागृति के कारण मानसिक क्लेश, शारीरिक मानसिक अस्वस्थता । जो संघर्ष के कारण बनते हैं। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है-प्रमादी मानव को सब ओर से भय होता है, अप्रमादी को कहीं भी भय नहीं होता। भय सात प्रकार का है- इहलोकभय, परलोकभय, अत्राणमय (आदानमय), अकस्मात्भय, आजीविकामय, वेदनाभय, अपबशभय और मरणभय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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