Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 521
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०३७%. दुःखद परिणाओं का निरूपण किया गया है। कदाचित् किसी निर्ग्रन्थ साधु के मन में हिंसा आदि पापस्रवों में से किसी भी पापासव की अव्यक्त इच्छा हो जाए तो तुरंत ही दूसरे क्षण वह शास्त्रोक्त उक्त परिणामों पर विचार करेगा - "यह महाव्रती एवं विश्ववन्द्य निर्ग्रन्य साधु के लिए अच्छा नहीं है, मेरे भावी जीवन को यह पाप अन्धकारमय बना देगा, इसका कंटुफल मुझे ही भोगना पड़ेगा। इससे अच्छा है कि मैं इस पाप को न करूँ ।" इस • प्रकार चिन्तन करके बह-मुनि मन ही मन संकल्प करके पापकारी इच्छा को तुरन्त शान्त कर देता है। उसने अपनी दुष्ट वृत्ति ( खराब इच्छा) का वहीं शमन कर दिया। व्यावहारिक दृष्टि से भी शमन का मार्ग व्यक्त इच्छा का निग्रह है। अविरति आनद को मिटाने का यह प्रथम उपाय है। इससे व्रतसंवर निष्पन्न होता है, जो अध्यात्म सेवर का अंग है। लोक- व्यावहारिक क्षेत्र में भी नैतिक दृष्टि से शमन का उपाय हितकर है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह अच्छा माना जाता है। जैसे - कोई व्यक्ति व्यभिचार के मार्ग में जाने का विचार करता है। दूसरों की देखादेखी विचार तो कर लेता है, परन्तु इस विचार को क्रियान्वित करने से पहले उसमें विवेक जागा - " ब्यभिचार का मार्ग अच्छा नहीं है। इससे तन, मन, धन और धर्म चारों बर्बाद होते हैं। लोकव्यवहार में भी इसे निन्द्य माना गया है। इससे भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं।” इस प्रकार का विवेक जाग्रत होते ही उसने उक्त बुराई में प्रवृत्त होने के विचार को मन ही मन दबा दिया, शान्त कर दिया। 1... इसी प्रकार शराब, जुआ, शिकार आदि बुराइयों में प्रवृत्त होने से पहले उन बुराइयों से भयंकर ज्ञनि और क्षणिक तृत्ति का विचार आते ही वह रुक जाता है, और अपनी दुर्वृत्ति का शमन कर लेता है।' आत्मयुद्ध का तीसरा प्रकार : उदात्तीकरण आत्मयुद्ध का तीसरा प्रकार या उपाय है-उदात्तीकरण । उदात्तीकरण का अर्थ है -पापानव के मार्ग में प्रवृत्त होने के विचार की पुण्यासव में बदल देना। अथवा बुरे विचारों या बुराइयों के विचार के कारण आनवों के आगमन को रोकने हेतु अच्छे विचार-शुद्ध आत्महित लक्ष्यी विचारों में परिवर्तित कर देना । जैसे-एक भाई की पत्नी के गुजर जाने पर लोगों ने उसे दूसरा विवाह कर लेने का अनुरोध किया, आग्रह पर आग्रह होने लगे, परन्तु वह विवाह करने से इन्कार करता रहा, उसने अपने इस विचार को ब्रह्मचर्यपालन में लगाकर देश सेवा एवं समाज सेवा का व्रत ले लिया। महात्मा गाँधी ने देशसेवा का विचार किया तो अपनी फ्ली कस्तूरबा को समझाकर अब्रह्मचर्य का त्याग करके ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। यह अब्रह्मचर्य आसव का निरोध करके ब्रह्मचर्य स्वीकाररूप संवर है, वृत्ति का उदात्तीकरण है। १. अभ्युदय से यत्किंचिद् भावग्रहण, पृ. १६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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