Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 527
________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०४३ आत्मयुद्ध का छठा प्रकार :प्रत्याख्यान इसके पश्चात् आत्मयुद्ध का छठा प्रकार है-प्रत्याख्यान। इसमें नियम-उपनियमों का ग्रहण, अमुक मर्यादाओं का स्वीकार, अमुक तप, व्रत आदि का स्वीकार, और अमुक बुराई या आसव को छोड़ने का सत्संकल्प, अथवा आत्मा के लिए अहितकर अमुक पदार्थ व्यसन आदि का त्याग, एवं अमुक प्रतिज्ञाग्रहण आदि का समावेश हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में संभोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, सहाय-प्रत्याख्यान, भक्तप्रत्याख्यान, एवं सद्भाव (पूर्ण-समग्रभावों का परमार्थतः) प्रत्याख्यान आदि प्रत्याख्यान के अनेक रूपों और उनके विविध सुपरिणामों का उल्लेख है। इससे प्रत्याख्यान की महत्ता और व्यापकता स्पष्ट सिद्ध है-अध्यात्म-संवर की सिद्धि के लिए।' ____ यह तो स्पष्ट है कि प्रत्याख्यान से वर्तमान में लग सकने वाले, भविष्यकाल में लगने की सम्भावना वाले दोषों, बुराइयों, पापों तथा आम्रवों का निरोध रूप संवर हो जाता है। प्रत्याख्यान से अध्यात्मसंवर में अवरोधक आम्रवों बुराइयों आदि से किनाराकशी की जाती है, फलतः संवर-साधना में कोई कठिनाई महसूस नहीं होती। आत्मयुद्ध का सप्तम प्रकार :आत्मस्वरूप-स्मृति-जागृति आत्मयुद्ध में अन्त तक टिकाये रखने वाला, हार न खानेवाला, तथा निराशा को दूर कर आत्मा में अध्यात्मसंवर में सफलता की आशा का संचार करने वाला सप्तम अमोघ उपाय या प्रकार है-सतत आत्मस्वरूपस्मृति-जागृति।। जब भी आत्मा अपने स्व-भाव या स्व-रूप को छोड़कर परभावों-आत्मबाह्य पदार्थों के प्रति राग द्वेषादि में जाने लगे, अथवा विभाव रूप कषायों के बीहड़ में भटकने लगे, उस समय अध्यात्म संवर-साधक वीर योद्धा की तरह अपने स्वरूप का स्मरण करे या याद रखे तो शीघ्र ही उनसे विरत हो सकता है। ... आत्मस्वरूप की स्मृति या जागृति दो प्रकार से हो सकती है-विधेयात्मक पहलू से और निषेधात्मक पहलू से। जैसे कि समयसार में कहा गया है-“मै (आत्मा) एकमात्र शुद्ध हूँ, ज्ञान-दर्शनमय हूँ, सदा अरूपी (अमूर्त) हैं। परमाणुमात्र भी अन्य पदार्थ मेरा नहीं है।" यह विधेयात्मक पहलू से आत्मस्वरूप है। समयसार में निषेधात्मक पहलू से भी आत्मस्वरूप की स्मृति बनाए रखने के लिए कहा गया-मैं क्रोध नहीं हूँ, मान, माया और लोभ नहीं हूँ। मैं राग, द्वेष, ईर्ष्या या घृणा आदि नहीं हूँ। १. देखें-उत्तराध्ययन सूत्र अ. २९ के सूत्र ३३ से ४१ तक की व्याख्या। (आ.प्र. समिति, व्यावर) पृ. ५०४ से ५०७ तक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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