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अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०४५
लगते हैं, जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार स्वयं पलायित हो जाता है। उस • समय आत्मा का शुद्ध अस्तित्व स्व-स्वरूप प्रकट हो जाता है।
फलितार्थ यह है कि मन-वचन-काया के योग जब समाप्त होने लगते हैं, तब पूर्वोक्त आम्रवद्वार बंद हो जाते हैं। फिर आत्मा में न तो क्रोधादि का आवेग या आवेश आ सकता है, और न ही मद, मत्सर, आदि आ सकते हैं। यही अध्यात्म संवर का परिपूर्ण और शुद्ध रूप है। अयोग संवर सिद्ध होते ही आत्मा अपने आप में परिपूर्ण हो जाता है, आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है, परमात्मभाव की परिपूर्ण स्थिति उपलब्ध हो जाती है। फिर आत्मा को बाहर से कुछ भी पाना या लेना नहीं होता। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रह जाती, जो आत्मा के लिए बाहर से ग्राह्य हो, या आत्मा के लिए हितकर हो ।'
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, कर्म, काया, मोह-माया, कषाय, राग-द्वेष मोह आदि सबसे आत्मा अतीत और पर हो जाता है। फिर चैतन्य पर कोई मूर्च्छा, ममता, अहंता, आदि का आवरण नहीं आ पाता, न ही आत्मा पर कोई भी विभाव या परभाव हावी हो सकते हैं। यह स्वयं पूर्ण, सर्वतंत्र स्वतंत्र, अनन्तज्ञानादि चतुष्टय से युक्त हो जाता है। यह सब आत्मा की -चैतन्य की सतत स्मृति, अस्तित्व की अनुभूति एवं जागृति का ही प्रभाव है । फिर आत्मा की शक्ति को कोई भी बाहरी सजीव निर्जीव पदार्थ अथवा विभाव
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कुण्ठित नहीं कर सकता। उसके अनन्त आनन्द (आत्मिक सुख) में कोई बाधा उत्पन्न नहीं कर सकता, न ही उसके ज्ञान-दर्शन के प्रकाश को कोई लुप्त कर सकता है। इसलिए आत्मयुद्ध का अन्तिम प्रकार या उपाय सतत आत्मस्वरूप स्मृति- जागृति बताया गया है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त विधि से आत्मशक्ति के संरक्षण एवं आत्मयुद्ध से अध्यात्म संवर की सिद्धि होने में कोई सन्देह नहीं रहता। अध्यात्म संवर की पूर्ण स्थिति होने पर अनन्तज्ञानादि चतुष्टव रूप महागुणों की उपलब्धि भी तत्काल हो जाती है।
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चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांश ग्रहण, पृ. २०९
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