Book Title: Karm Vignan Part 03
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 528
________________ १०४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) इसी प्रकार आचारांग सूत्र में भी शुद्ध आत्मा का निषेधात्मक पहलू से स्वरूप बताया गया है। आत्मषट्क में भी निषेधपरक स्वरूप बताकर अन्त में कहा गया- 'मैं एकमात्र चेतन हूँ, सच्चिदानन्दरूप शिव हूँ।' उपनिषदों में भी नेति नेति कहकर स्वरूप जागृति की प्रेरणा दी है। जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुल की स्मृति होने पर तुरन्त संभल कर कुलपरम्परा विरुद्ध कार्य नहीं करता, इसी प्रकार आत्मकुल की सतत स्मृति बनी रहे तो अध्यात्मसंवर का साधक तुरंत अपने स्वरूप का स्मरण करेगा- ये कषाय आदि मेरे कुल के नहीं है, मेरा तो ज्ञानादि परिवार का कुल है। इससे आत्मयुद्ध में आत्मा विजयी होती है, कषायादि परास्त हो जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि जब चैतन्य की निरन्तर स्मृति या अनुभूति रहती है, तब अध्यात्मसंवर की स्थिति होती है, यों भी कह सकते हैं- अध्यात्मसंवर अधिकाधिक सुदृढ़ होता रहता है। चैतन्य की सतत स्मृति या जागृति से आत्मा की शुद्धोपयोग में स्थिरता रहती है। अध्यात्मसंवर के आते ही सम्यक्त्व-संवर, व्रतसंवर, अप्रमाद - संवर और अकषाय-संवर सिद्ध हो जाते हैं। और संवर के अन्तिम शिखर अयोग-संवर तक साधक पहुंच जाता है। चैतन्य की सतत स्मृति- जागृति होते ही संवर आ जाता है, उसके आते ही आम्रवों के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। जब द्वार बंद हो जाता है, आत्मा अपने स्वरूप के प्रति जाग्रत होकर बैठ जाता है, तब न तो कोई क्रोधादि कषाय आ सकता है, न ही प्रमाद घुस सकता है और मिथ्यात्व, अविरति के आने का तो सवाल ही नहीं है। अन्तिम अयोग संवर के आते ही साधक ने जो आत्मा के साथ पौद्गलिक सम्बन्ध बांध रखे थे, वह सब एक-एक करके टूटने छूटने लगते हैं। कर्मों के साथ जितने भी सम्बन्ध प्राणी स्थापित करता है, वे सब आत्मा की विस्मृति के कारण होते हैं। जब-जब आत्म-विस्मृति होती है, तब कोई न कोई कर्म-पुद्गल आते हैं और आत्मा के साथ जुड़ जाते हैं। जब व्यक्ति अपना होश संभालता है, आत्मा की अनुभूति या स्मृति करता है, तब उन कार्मिक पुद्गलों का प्रभाव क्षीण होने लगता है। वे कर्मपुद्गल उसी प्रकार दूर होने १. (क) अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥" - समयसार ३८ (ख) देखें - अभ्युदय में समयसार में आत्मस्वरूप के निषेधपरक कथन का उल्लेख, पृ. १६२-१६३ (ग) देखें - आत्मषटक के उद्धरण पिछले पृष्ठों में। (घ) देखें - आचारांग १/५/६ सू. १७५ ( आ. प्र. समिति ब्यावर ) पृ. १८७-१८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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